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प्रवचनसार अनुशीलन ३. उनका आदर छोड़कर स्वभाव में ठहरनेरूप जाननक्रिया रही, वह श्रुतज्ञान है। इसे ही धर्म कहते हैं।'
निमित्त और उपाधि का आदर छोड़कर जो स्वभाव में ठहरता है, उसे श्रुतज्ञान होता है। यहाँ निमित्त का ज्ञान कराया है, किन्तु निमित्त का आदर छुड़ाया है। निमित्त के लक्ष्य से जो राग की मंदता हुई, वह श्रुतज्ञान नहीं है। मेरी ज्ञानपर्याय मेरे में होती है - ऐसा आत्मा को भासित हो तो सूत्र का आदर छूट जाता है।
श्रुतज्ञानी ज्ञानस्वभावी आत्मा को भावश्रुतज्ञान द्वारा अनुभवते हैं और केवली भगवान केवलज्ञान द्वारा आत्मा को अनुभवते हैं; इसलिए दोनों में ध्येय एक ही है, अंतर नहीं। चौथे गुणस्थानवाले जीव त्रिकाल ज्ञायकस्वभाव का अवलम्बन लेकर पुण्य-पाप का आश्रय छोड़कर क्रमश: कितने ही चैतन्य विशेषोंवाले श्रुतज्ञान द्वारा आत्मा को अनुभवते हैं और तेरहवें गुणस्थानवाले भगवान भी अक्रम सर्वचैतन्य विशेषोंवाले केवलज्ञान द्वारा आत्मा को अनुभवते हैं - अत: दोनों को एक समान गिना है।"
इस गाथा में द्रव्यश्रुत को केवली उपदिष्ट पौद्गलिक वचनात्मक कहा है और उसके आश्रय से प्राप्त होनेवाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा है।
इसकी व्याख्या करते हुए टीकाओं में यह कहा गया है कि श्रुत अर्थात् निमित्तरूप द्रव्यश्रुत को गौण कर दें तो श्रुतज्ञान भी तो ज्ञान ही है।
केवलज्ञान भी ज्ञान है और श्रुतज्ञान भी ज्ञान है । इसप्रकार केवलज्ञान से आत्मा को जानना भी ज्ञान से जानना है और श्रुतज्ञान से आत्मा को जानना भी ज्ञान से ही जानना है। केवली और श्रुतकेवली - दोनों ही अपने आत्मा को ज्ञान से ही जानते हैं; अतः उन दोनों के आत्मा को जानने में कोई अन्तर नहीं है। इसलिए निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि ज्ञान में श्रुत-उपाधिकृत भेद नहीं है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२५२ २. वही, पृष्ठ-२५२ ३. वही, पृष्ठ-२५३
प्रवचनसार गाथा-३५ विगत गाथा में श्रुतज्ञान में श्रुतोपाधि का निषेध किया, द्रव्यश्रुत का निषेध किया, द्रव्यश्रुतरूप निमित्त का निषेध किया; अब इस ३५वीं गाथा में आत्मा और ज्ञान में कर्ता-करण संबंधी भेद का भी निषेध करते हैं।
गाथा मूलत: इसप्रकार है - जोजाणदि सोणाणं ण हवदिणाणेण जाणगो आदा। णाणं परिणमदि सयं अट्टा णाणट्ठिया सव्वे ।।३५।।
(हरिगीत) जो जानता सो ज्ञान आतम ज्ञान से ज्ञायक नहीं।
स्वयं परिणत ज्ञान में सब अर्थ थिति धारण करें।।३५।। जो जानता है, वह ज्ञान है, ज्ञान के द्वारा आत्मा ज्ञायक है - ऐसा नहीं है। वह आत्मा स्वयं ही ज्ञानरूप परिणमित है और सर्व पदार्थ ज्ञानस्थित हैं।
इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“साधकतम उष्णत्वशक्ति अन्तर्लीन है जिसमें, ऐसी अग्नि के जिसप्रकार स्वतंत्ररूप से दहनक्रिया की प्रसिद्धि होने से उष्णता सिद्ध है; उसीप्रकार अपृथग्भूत कर्तृत्व और करणत्व की शक्तिरूप परमैश्वर्यवान होने से जो आत्मा स्वयमेव जानता है, वही ज्ञान है।
जिसप्रकार पृथग्वर्ती हांसिये से देवदत्त काटनेवाला कहलाता है; उसीप्रकार ज्ञान से आत्मा जाननेवाला है - ऐसा नहीं है।
यदि ऐसा हो तो दोनों के अचेतनता आ जावेगी और दो अचेतनों का संयोग होने पर भी ज्ञप्ति उत्पन्न नहीं होगी। आत्मा और ज्ञान के पृथग्वर्ती होने पर भी यदि आत्मा को ज्ञप्ति होना माना जाय तो परज्ञान के द्वारा पर को ज्ञप्ति हो जावेगी और इसप्रकार राख आदि के भी ज्ञप्ति का उद्भव निरकुंश हो जावेगा।