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प्रवचनसार अनुशीलन निहचै निहारें दोऊ आपस में न्यारे तौऊ,
व्याप्य अरु व्यापक को यही विरतंत है ।।१३४।। जिसप्रकार लोक में इन्द्रनील रत्न को दूध में डालते हैं तो वह रत्न अपनी आभा से दूध की सफेदी को भेदकर दूध को नीले रंगरूप दिखाने लगता है। उसीप्रकार केवली भगवान के ज्ञान की शक्ति ज्ञेयों को ज्ञानाकार करती हुई शोभायमान होती है।
निश्चयनय से देखें तो ज्ञान और ज्ञेय - दोनों जुदे-जुदे ही हैं। व्याप्य ज्ञान और व्यापक आत्मा - दोनों की यही स्थिति है। तात्पर्य यह है कि आत्मा और ज्ञान - दोनों ही ज्ञेयों से जुदे ही हैं; तो भी ज्ञेयों को जानने के कारण आत्मा और ज्ञान - दोनों ही सर्वगत कहे गये हैं।
(षट्पद) जो सब वस्तु न लसें, ज्ञान केवलमहँ आनी। तो तब कैसे होय, सर्वगत केवलज्ञानी ।। जो श्रीकेवलज्ञान, सर्वगत पदवी पायो।
तो किमिवस्तु न बसहि, तहाँसब यों दरसायो।। उपचार द्वारतें ज्ञान जिमि, ज्ञेयमांहि प्रापति कही। ताही प्रकार तें ज्ञान में, वस्तु वृन्द वासा लही ।।१३५ ।।
यदि केवलज्ञान में सभी वस्तुएँ जानने में नहीं आयें तो केवलज्ञानी सर्वगत कैसे हो सकते हैं? यदि केवलज्ञान सर्वगत है तो फिर उसमें सभी वस्तुएँ कैसे नहीं जानी जायेगी?
जिसप्रकार उपचार से ज्ञेयों में ज्ञान की प्राप्ति कही; उसीप्रकार ज्ञान में ज्ञेयों का वास भी जानना चाहिए।
इस विषय को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"ज्ञान में सभी ज्ञेय जानने में आते हैं; इसलिए ज्ञान ज्ञेयों में प्रविष्ट होता है - ऐसा कहा जाता है; इसतरह यहाँ व्यवहार सिद्ध किया है।
गाथा-३०-३१
१५५ आत्मा के ज्ञान में पर पदार्थ निमित्त कारण हैं, यह सिद्ध करते हैं। पदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय ज्ञान में जानने में आ गये हैं, इसलिए आत्मा पर में प्रविष्ट हुआ है - ऐसा कहा जाता है। ज्ञान पदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय को जानता है, इसलिए ज्ञान पदार्थों में व्याप्त होता है - ऐसा उपचार करने में आया है।
जिसतरह दूध में रहा हुआ इन्द्रनीलरत्न अपनी प्रभा समूह द्वारा दूध में व्याप्त होकर वर्तता हुआ दिखाई देता है - उपचार से दूध में पसरता हुआ दिखाई देता है; उसीतरह भगवान अखण्ड आत्मा, ज्ञान से अभिन्न होने से कर्ता अंश द्वारा आत्मपने को प्राप्त होता हुआ और ज्ञान साधन के भेद द्वारा कारणभूत पदार्थों के कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों में व्याप्त होकर वर्तता है । ज्ञेयों से भरे हुए विश्व में रहा हुआ आत्मा, समस्त लोकालोक को अपनी ज्ञानप्रभा द्वारा प्रकाशित करता है अर्थात् जानता है; इसलिए व्यवहार से आत्मा का ज्ञान और आत्मा सर्वव्यापी कहलाता है; यद्यपि निश्चय से तो आत्मा और ज्ञान अपने असंख्य प्रदेशों में ही रहते हैं, ज्ञेयों में प्रविष्ट नहीं होते।
जैसे मयूर (मोर) बिम्ब है और दर्पण में दिखाई देता है, वह प्रतिबिम्ब है; वैसे ही लोकालोक के ज्ञेयाकार बिम्ब हैं और ज्ञान में जो दिखते हैं, वे ज्ञेयाकार प्रतिबिंब हैं। सम्पूर्ण लोकालोक बिम्ब है और आत्मा का ज्ञान प्रतिबिम्ब है। पदार्थ उनके द्रव्य-गुण-पर्याय के कारण है और ज्ञान पर्याय में परम्परा कारण है; इसलिए पदार्थ ज्ञानस्थित हैं - ऐसा निश्चित होता है। द्रव्य-गुण-पर्याय बिम्ब हैं, उनका कारण पदार्थ है। पदार्थ कारण है
और द्रव्य-गुण-पर्याय कार्य है। प्रतिबिम्ब तो ज्ञान की पर्याय है। प्रतिबिम्ब का कारण तो भेदरूप द्रव्य-गुण-पर्याय हैं।" १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२२७ २. वही, पृष्ठ-२२७-२२८ ३. वही, पृष्ठ-२३०
४.वही, पृष्ठ-२३१