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प्रवचनसार अनुशीलन मयूर आदि दर्पण में दिखाई देते हैं, वह तो दर्पण की अवस्था है। पदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय ज्ञान में नहीं आए हैं; निश्चय से ऐसा होने पर भी व्यवहार से देखा जाए तो ज्ञान में हुई ज्ञान की अवस्था का कारण पदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय हैं, उनका कारण पदार्थ है । इसतरह परम्परा से ज्ञान में हुए ज्ञेयाकारों का कारण पदार्थ है; इसलिए उस ज्ञान की अवस्थारूप ज्ञेयाकारों को अथवा ज्ञानाकारों को ज्ञान में देखकर, कार्य में कारण का उपचार करके पदार्थ ज्ञान में है - ऐसा व्यवहार से कहा जा सकता है। ज्ञान पर्याय में ज्ञेयाकार आ गये हैं - ऐसा भी कहा जाता है।
तेरा ज्ञान पर-पदार्थ के भेद तथा अभेद को जानने में समर्थ है । परपदार्थ अपने भेद तथा अभेद स्वभाव को जनावने में समर्थ है। किन्तु तेरा ज्ञान उन्हें लावे अथवा छोड़े - ऐसा संबंध नहीं है। वे तेरे ज्ञान में आवेऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध है।"
यहाँ आत्मा को कर्ता और ज्ञान को करणरूप में प्रस्तुत किया गया है और आत्मा और ज्ञान - दोनों को ही पदार्थों में व्याप्त कहा गया है अर्थात् उन्हें सर्वगत कहा गया है।
आत्मा ज्ञान द्वारा पदार्थों को जानता है; इसे ही 'आत्मा सर्वगत है और ज्ञान सर्वगत हैं' - ऐसा कहा जाता है। कर्ता की अपेक्षा आत्मा को सर्वगत कहा जाता है और करण की अपेक्षा ज्ञान को सर्वगत कहा जाता है।
इस बात को यहाँ दूध में पड़े हुए इन्द्रनील रत्न का उदाहरण देकर समझाया गया है।
इन्द्रनील रत्न नीले रंग का होता है। उसका ऐसा स्वभाव है कि यदि उसे दूध में डाल दें तो उसकी प्रभा से सम्पूर्ण दूध नीला दिखाई देने लगता है। इसे ही ऐसा कहा जाता है कि दूध नीला हो गया।
गाथा-३०-३१
१५७ गहराई से देखें तो दूध नीला नहीं हुआ है, दूध तो सफेद ही है; क्योंकि यदि दूध में से रत्न को निकाल लिया जाय तो दूध सफेद ही दिखाई देगा। इसका तात्पर्य यही है कि इन्द्रनील रत्न के डूबे होने पर भी दूध तो सफेद ही था; फिर भी लोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण दूध नीला हो गया है।
रत्न रत्न में है और दूध दूध में है तथा रत्न और दूध - दोनों ही संयोग के काल में भी अविकृत ही रहे हैं; तथापि रत्न की प्रभा से दूध रत्न के समान नीला दिखाई देता है। इसकारण व्यवहारनय से दूध को नीला कह दिया जाता है। इसीप्रकार ज्ञान में ज्ञेय प्रतिबिम्बित होते हैं तो ज्ञान ज्ञेयाकार दिखाई देने लगता है। यद्यपि ज्ञेयों को जानते समय भी ज्ञान तो ज्ञानरूप ही रहता है, ज्ञेयरूप नहीं होता और ज्ञेय ज्ञेयरूप रहते हैं, ज्ञानरूप नहीं होते; तथापि ज्ञेय ज्ञान में ज्ञात होते हैं; इसकारण ज्ञान को सर्वगत कहा जाता है। ___ पदार्थों का स्वयं का स्वरूप है बिंब और दर्पण में झलकता हुआ उनका रूप है प्रतिबिंब । प्रतिबिंब का निमित्त तो बिंब है, पर उपादान तो दर्पण ही है; क्योंकि दर्पण में जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सब दर्पण की अवस्थाएँ हैं। ___इसीप्रकार ज्ञेय पदार्थों का जो भी स्वरूप है, वह तो उनका स्वयं का ही है; परन्तु जानने में आनेवाला उनका रूप ज्ञान की रचना है। यद्यपि उनका ज्ञेयरूप निमित्त ज्ञेय पदार्थ हैं, तथापि ज्ञेयों को जाननेवाली उन ज्ञान पर्यायों का उपादान तो ज्ञान ही है, आत्मा ही है। इसप्रकार वे ज्ञेयाकार वास्तव में तो ज्ञान ही हैं, आत्मा ही हैं।
सम्पूर्ण विश्लेषण का सार यही है कि यद्यपि निश्चय से आत्मा अपने में ही रहता है, तथापि समस्त ज्ञेयों को जानने के कारण आत्मा और ज्ञान सर्वगत हैं और समस्त ज्ञेय आत्मा में प्रतिबिम्बित हो जाने के कारण ज्ञेय ज्ञानगत है, आत्मगत है।
१.दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२३३