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प्रवचनसार अनुशीलन केवली को क्षयोपशम ज्ञान का अभाव है; वे एक ही साथ सभी को जानते हैं। खण्ड-खण्ड जानने में ज्ञान में परिवर्तन होता है और राग आता है; किन्तु केवली को यह नहीं होता। एक ज्ञेय को जानने, फिर दूसरे को जानना अथवा एक को जानकर छोड़ना और उसके बाद दूसरे को जानना - ऐसी ज्ञप्ति क्रिया का परिवर्तन करना अर्थात् ज्ञान में एक ज्ञेय को ग्रहण करना और दूसरे को छोड़ना - यह ग्रहण-त्याग है। ऐसी ग्रहण-त्याग की क्रिया है। ऐसी क्रिया का केवली भगवान को अभाव हुआ है। निचली (अल्प) दशा में भी ज्ञान परवस्तु का ग्रहण-त्याग नहीं करता, किन्तु एक को जानकर छोड़ना, फिर दूसरे को जानकर छोड़ना - यह निचलीदशा में होता है; किन्तु केवली भगवान को ऐसा नहीं होता। ऐसी ग्रहण-त्याग की क्रिया का उनके अभाव है; क्योंकि वहाँ एक ही साथ सभी पदार्थ जानने में आते हैं।'
१. अपूर्णदशा में भी जीव पर का ग्रहण-त्याग नहीं करता। विपरीत ज्ञान मात्र मानता है कि मैं पर का ग्रहण-त्याग करता हूँ। इसप्रकार अज्ञान से खेद सहित ज्ञप्तिपरिवर्तन को प्राप्त होता है।
२. सम्यग्ज्ञान होते ही 'मैं पर का ग्रहण-त्याग करता हूँ' - ऐसा नहीं मानता; इसलिए ज्ञान मिथ्या नहीं; किन्तु अपूर्ण है, इसलिए एक के बाद एक जानता है। इसप्रकार ज्ञान में परिवर्तन होता है। इसतरह वह ज्ञान सहित परिवर्तन को प्राप्त है।
३. भगवान को पूर्णदशा होने पर ग्रहण-त्याग क्रिया का परिवर्तन नही है। केवली भगवान अक्रमपने जानते-देखते हैं, वहाँ खण्ड-खण्डपना अथवा परिवर्तन नहीं है।
इसतरह पूर्वोक्त दोनों ही प्रकार से आत्मा का पदार्थों से अत्यन्त भिन्नपना ही है।” ____ इसप्रकार इस गाथा में मात्र यही कहा गया है कि सबको जानतेदेखत्यहनिम्मी सर्व भगवो सबरूप नहीं होते, ज्ञानरूपही रहते हैं, ज्ञेयपदार्थों से भिन्न ही रहते हैं।
प्रवचनसार गाथा-३३ विगत गाथाओं में यह स्पष्ट किया गया है कि केवलज्ञान में लोकालोक प्रतिबिम्बित होता है, पर केवलज्ञानी लोकालोकरूप नहीं होते, लोकालोक भी उनरूप नहीं होता; वे ज्ञेयरूप लोकालोक से भिन्न रहते
निर्लिप्त ही रहते हैं। ___अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि केवलज्ञानी के समान श्रुतज्ञानी भी सबको जानते हुए सबसे भिन्न ही रहते हैं, निर्लिप्त ही रहते हैं । इसप्रकार से केवलज्ञानी और श्रुतज्ञानी में कोई अन्तर नहीं है। मूल गाथा इसप्रकार है -
जो हि सुदेण विजाणादि अप्पाणं जाणगं सहावेण। तं सुदकेवलिमिसियो भणंति लोगप्पदीवयरा ।।३३।।
(हरिगीत) श्रुतज्ञान से जो जानते ज्ञायकस्वभावी आतमा ।
श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशकलोकके।।३३।। जो वास्तव में श्रुतज्ञान के द्वारा स्वभाव से ज्ञायक आत्मा को जानता है, उसे लोक के प्रकाशक ऋषीगण श्रुतकेवली कहते हैं।
उक्त गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___“अनादिनिधन निष्कारण असाधारण स्वसंवेद्यमान चैतन्य सामान्य महिमा के धारक चेतनस्वभाव से एकत्व होने से जिसप्रकार भगवान युगपत् परिणमित समस्त चैतन्यविशेषयुक्त केवलज्ञान के द्वारा केवल आत्मा को
आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण केवली हैं; उसीप्रकार अनादिनिधन निष्कारण असाधारण स्व-संवेद्यमान चैतन्य सामान्य महिमा के