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प्रवचनसार गाथा-१९-२० विगत गाथाओं में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि यह स्वयंभू भगवान आत्मा शुद्धोपयोग के प्रभाव से इन्द्रियातीत हो गया है, उसके ज्ञान और आनन्द अतीन्द्रिय हो गये हैं। वह अनन्तज्ञान और अनन्तसुख से सम्पन्न हो गया है।
ऐसी स्थिति में इन्द्रियों से ही ज्ञान और आनन्द की उत्पत्ति माननेवाले अज्ञानीजनों को यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि बिना इन्द्रियों के इस भगवान आत्मा को ज्ञान और आनन्द की प्राप्ति कैसे हो सकती है ?
उक्त आशंका का सतर्क समाधान ही इन आगामी गाथाओं में किया गया है; जो इसप्रकार हैं
पक्खीणघादिकम्मो अणंतवरवीरिओ अहियतेजो। जादो अदिदिओ सो णाणं सोक्खं च परिणमदि ।।१९।। सोक्खं वा पुण दुक्खं केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं । जम्हा अदिदियत्तं जादं तम्हा दु तं णेयं ।।२०।।
(हरिगीत) अतीन्द्रिय हो गये जिनके ज्ञान सुख वे स्वयंभू । जिन क्षीणघातिकर्म तेज महान उत्तम वीर्य हैं ।।१९।। अतीन्द्रिय हो गये हैं जिन स्वयंभू बस इसलिए।
केवली के देहगत सुख-दुःख नहीं परमार्थ से ।।२०।। जिनके घातिकर्म क्षय हो चुके हैं; जो अतीन्द्रिय हो गये हैं, जिनका तेज अधिक और वीर्य उत्तम है; ऐसे वे स्वयंभू भगवान आत्मा ज्ञान और सुखरूप परिणमन करते हैं।
केवलज्ञानी के शरीर संबंधी सुख-दुःख नहीं होते; क्योंकि उनके ज्ञान और आनन्द में अतीन्द्रियता उत्पन्न हो गई है।
गाथा-१९-२०
११३ १९वीं गाथा का अर्थ ऐसा भी किया जा सकता है कि जिनके घातिकर्म क्षय हो चुके हैं, जिनका तेज अधिक और वीर्य उत्तम है; उन स्वयंभू भगवान के ज्ञान और सुख अतीन्द्रिय हो गये हैं। __ये शुद्धोपयोग अधिकार की अंतिम गाथायें हैं। इसके उपरान्त अब क्रमश: ज्ञान अधिकार और सुख अधिकार आरंभ होगा। आगामी अधिकारों की विषयवस्तु का संकेत इन गाथाओं में आ गया है।
इन गाथाओं में यह स्पष्ट किया गया है कि अरहंत भगवान के चार घातिया कर्मों के नाश हो जाने से उनके ज्ञान और सुख अतीन्द्रियपने को प्राप्त हो गये हैं; इसकारण उनके पुण्य-पाप के उदय में होनेवाले देहगत सुख-दु:ख नहीं होते । वे स्वयंभू सर्वज्ञ भगवान अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द
और क्षायिकभावरूप अनंतज्ञान के धारी हो गये हैं। उनका वह अतीन्द्रिय ज्ञान व सुख कैसा है ? इस बात का विशेष वर्णन आगामी अधिकारों में स्वतंत्ररूप से किया जायेगा।
उक्त गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है__ "शुद्धोपयोग की सामर्थ्य से जिसके घातिकर्म क्षय हो गये हैं, क्षायोपशमिक ज्ञान-दर्शन के साथ असंपृक्त (सम्पर्क रहित) होने से जो अतीन्द्रिय हो गया है, समस्त अन्तराय का क्षय होने से जिसका उत्तम वीर्य है और समस्त ज्ञानावरण और दर्शनावरण का प्रलय हो जाने से जिसका केवलज्ञान और केवलदर्शन नामक तेज अधिक है; ऐसा यह स्वयंभू आत्मा समस्त मोहनीय कर्म के अभाव के कारण अत्यन्त निर्विकार शुद्ध चैतन्य स्वभाववाले आत्मा का अनुभव करता हुआ स्वयमेव स्वपर प्रकाशकता लक्षण ज्ञान और अनाकुलता लक्षण सुखरूप होकर परिणमित होता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान और आनन्द आत्मा का स्वभाव ही हैं।