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प्रवचनसार अनुशीलन चूँकि स्वभाव पर से निरपेक्ष होता है; इसलिए आत्मा के ज्ञान और आनन्द भी निरपेक्ष ही होते हैं, उन्हें इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं है, देह की अपेक्षा नहीं है; वे पूर्णत: स्वाधीन हैं। आत्मा को सुखरूप और ज्ञानरूप परिणमित होने के लिए पर की रंचमात्र भी अपेक्षा नहीं है, आवश्यकता नहीं है।
जिसप्रकार तप्त लोहपिण्ड के विलास से अग्नि भिन्न ही है; उसीप्रकार शुद्ध आत्मा के इन्द्रियाँ नहीं हैं, शरीर नहीं है। इसलिए जिसप्रकार लोहे के गोले से भिन्न अग्नि को घन के घात नहीं सहने पड़ते; उसीप्रकार शुद्ध आत्मा के शरीर संबंधी सुख-दुःख नहीं होते।"
१९वीं गाथा में घातिया कर्मों के अभाव में उत्पन्न होनेवाले अनन्त चतुष्टय की चर्चा की गई है और २०वीं गाथा में यह कहा गया है कि सर्वज्ञ भगवान के देहगत अर्थात् इन्द्रिय सुख-दुःख नहीं होते; क्योंकि वे अतीन्द्रिय ज्ञान व अतीन्द्रिय सुखरूप परिणमित हो गये हैं।
इसी बात को स्पष्ट करते हुए टीका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के अभाव से अथवा क्षयोपशम ज्ञानदर्शन के अभाव से अथवा इन्द्रियज्ञान-दर्शन के अभाव से केवलज्ञानी व केवलदर्शनी अथवा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी अथवा अतीन्द्रिय ज्ञान-दर्शन वाला तथा अन्तराय कर्म के अभाव से अनंतवीर्य का धनी यह स्वयंभू भगवान आत्मा मोहनीय कर्म के अभाव के कारण निज चैतन्य तत्त्व का अनुभव करता हुआ स्वयं स्वभाव से ही स्व-परप्रकाशक ज्ञान और अनाकुललक्षण सुखरूप परिणमित होता है। अत: वह निरपेक्षभाव से अनन्तज्ञान और अनन्तसुखमय है।
अन्त में आचार्य अमृतचन्द्र निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि स्वभाव ही उसे कहते हैं कि जिसमें पर की अपेक्षा न हो । यही कारण है कि शुद्धोपयोग से घातिकर्म के अभाव होते ही यह आत्मा इन्द्रियों के
गाथा-१९-२०
११५ बिना ही स्वाभाविकरूप से स्वयं ही ज्ञान और आनन्दरूप से परिणमित हो जाता है। ___ जो लोग सर्वथा ऐसा मानते हैं कि आत्मा पर को जानता ही नहीं है; उन्हें आचार्य अमृतचन्द्र के उक्त कथन पर ध्यान देना चाहिए कि जिसमें कहा गया है कि स्व-पर-प्रकाशकत्व ज्ञान का लक्षण है। ___अब यहाँ प्रश्न खड़ा होता है कि यह कैसे हो सकता है; क्योंकि अरहंत भगवान के देह विद्यमान है, इन्द्रियाँ विद्यमान हैं; इसकारण उनके देहगत इन्द्रिय सुख-दुःख तो होना ही चाहिए? ___ इसी प्रश्न के उत्तर में २०वीं गाथा लिखी गई है। इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए अमृतचन्द्र ने लोहे के पिण्ड से भिन्न अग्नि का उदाहरण दिया है। कहा है कि जब लोहे के संसर्ग के अभाव के कारण लोहे पर पड़ने वाली घन की चोटें अग्नि को नहीं लगती; तब आत्मा के शरीर संबंधी सुख-दुःख कैसे हो सकते हैं? प्रश्न - हमने तो ऐसा पढ़ा है कि -
कर्म विचारे कौन भूल तेरी अधिकाई।
अग्नि सहे घनघात लौह की संगति पाई। जिसप्रकार लौह की संगति में पड़ने से अग्नि को घनों का घात सहना पड़ता है; उसीप्रकार इस आत्मा ने स्वयं को भूलकर अर्थात् स्वयं की भूल से कर्मों की संगति की है और अनंत दुःख उठाये हैं; इसमें कर्मों का क्या दोष है?
उक्त कथन में तो यह आया है कि आत्मा ने देहगत दुःख पाये हैं और आप कह रहे हैं कि आत्मा के देहगत सुख-दु:ख नहीं हैं।
उत्तर - अरे भाई! उक्त छन्द में संसारी अज्ञानी आत्मा की बात है और यहाँ अनन्त चतुष्टयरूप परिणमित सर्वज्ञ भगवान की बात है। वहाँ लौह की संगति में पड़ी अग्नि की बात है और यहाँ लौह की संगति में न