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प्रवचनसार अनुशीलन
यदि आत्मा ज्ञान से बड़ा होगा तो फिर आत्मा का जो अंश ज्ञान से रहित होगा, वह जानने का काम करेगा कैसे ?
अतः यही उचित है कि आत्मा को ज्ञानप्रमाण ही स्वीकार किया जाये ।
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इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"यदि यह स्वीकार किया जाय कि आत्मा ज्ञान से हीन है तो आत्मा से आगे बढ़ जानेवाला ज्ञान अपने आश्रयभूत चेतनद्रव्य का समवाय (संबंध) न रहने से अचेतन होता हुआ रूपादि गुणों जैसा अचेतन होने से नहीं जानेगा।
यदि ऐसा पक्ष स्वीकार किया जावे कि यह आत्मा ज्ञान से अधिक है तो ज्ञान से आगे बढ़ जाने से ज्ञान से रहित होता हुआ घटपटादि जैसा होने से ज्ञान के बिना नहीं जानेगा ।
इसलिए यह आत्मा ज्ञानप्रमाण ही मानना योग्य है।"
इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में निष्कर्ष रूप में कहते हैं कि उक्त कथन से आत्मा को अंगूठे के पोर के बराबर, सावों के चावल बराबर और वटककणिका बराबर माननेवालों का निराकरण हो गया। साथ ही उनका भी निराकरण हो गया कि जो आत्मा को सात समुद्घातों को छोड़कर भी देहप्रमाण से अधिक प्रमाणवाला मानते हैं ।
इसप्रकार यह सहज ही प्रतिफलित होता है कि आत्मा और ज्ञान क्षेत्र की अपेक्षा एक ही प्रमाण (नाप) वाले हैं और संसारदशा में समुद्घात को छोड़कर शेष काल में आत्मा देहप्रमाण ही होता है।
प्रवचनसार परमागम में कविवर वृन्दावनदासजी उक्त तथ्यों को निम्नांकित दोहों के माध्यम से स्पष्ट करते हैं -
गाथा - २४-२५
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(दोहा)
जथा अगनि गुन उष्णतें हीन अधिक नहिं होत ।
तथा आतमा ज्ञान गुन सहित बराबर जोत । । ११४ ।। अन्वय अरु व्यतिरेकता ज्ञान आत्मा माहिं ।
बिना ज्ञान आतम नहीं आतम बिनु सो नाहिं । । ११५।। जहाँ जहाँ है आतमा तहाँ तहाँ है ज्ञान । जहाँ जहाँ है ज्ञान गुन तहाँ तहाँ जिय मान ।। ११६ । । तातें हीनाधिक नहीं ज्ञान सुगुनतें जीव । हीनाधिक के मानतें बाधा लगत सदीव ।।११७ ।। कछु प्रदेश पै ज्ञान है कछु प्रदेश पै नाहिं । यों मानत जड़ चेतना दोनों सम है जाहिं । । ११८ । । जिसप्रकार अग्नि अपने उष्णतारूप गुण से हीन और अधिक नहीं होती है; उसीप्रकार आत्मा भी अपने ज्ञानगुण के बराबर ही होता है।
आत्मा और ज्ञान में अन्वय और व्यतिरेक घटित होता है; क्योंकि आत्मा बिना ज्ञान नहीं होता और ज्ञान बिना आत्मा नहीं होता।
जहाँ-जहाँ आत्मा है, वहाँ-वहाँ ज्ञान है और जहाँ-जहाँ ज्ञानगुण है; वहाँ-वहाँ आत्मा भी है ही ।
इसलिए जीव ज्ञानगुण से हीनाधिक नहीं है, हीनाधिक मानने में अनेक बाधायें आती हैं।
कुछ प्रदेशों पर ज्ञान है और कुछ प्रदेशों पर ज्ञान नहीं है। ऐसा मानने पर जड़ और चेतन दोनों एकसमान हो जाते हैं।
इन गाथाओं के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"यदि, केवलज्ञान लोकालोक में प्रवेश कर जाए तो केवलज्ञान से आत्मा छोटा हो जायेगा और केवलज्ञान को आत्मा का आश्रय नहीं रहा तो ज्ञान को अचेतनपने का प्रसंग आता है। इसीतरह संसारदशा में भी