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प्रवचनसार अनुशीलन __“जहाँ गुण होते हैं, वहीं गुणी होता है। जहाँ ज्ञान हो वहाँ आत्मा होता है और वहीं ज्ञानादि अनन्तगुण होते हैं। जहाँ गुण नहीं हो तो गुणी भी नहीं होता; जैसे ज्ञान नहीं हो तो वहाँ आत्मा भी नहीं होता और गुणी नहीं हो तो वहाँ गुण भी नहीं होते । जैसे आत्मा नहीं हो तो वहाँ ज्ञान भी नहीं होगा। इसप्रकार गुण-गुणी का अभिन्न प्रदेशरूप संबंध है - यही समवाय संबंध है।
आत्मा अनन्त गुणों को धारण करनेवाला है। ज्ञान द्वारा आत्मा ज्ञान कहलाता है, प्रभुत्व धर्म द्वारा आत्मा परमेश्वर कहलाता है, विभु धर्म द्वारा आत्मा विभु है, चारित्र धर्म द्वारा आत्मा चारित्र कहलाता है, श्रद्धा धर्म द्वारा आत्मा श्रद्धा कहलाता है । इसतरह आत्मा परमेश्वर है । यह मत सर्वज्ञ भगवान का है।
इसप्रकार २७ वीं गाथा में निम्न बातें आई हैं -
(१) यह आत्मा ज्ञान के बिना अस्तित्व को धारण नहीं करता। इसलिए जो आत्मा ज्ञान है, वह ज्ञान अन्य आत्माओं और जड़ पदार्थों के साथ संबंध नहीं रखता अर्थात् राग और इन्द्रिय शरीरादि निमित्त के साथ ज्ञान का संबंध नहीं है, अपितु ज्ञान आत्मा के साथ संबंध रखता है; इसलिए ज्ञान आत्मा है। अचेतन और अन्य चेतन द्रव्यों से ज्ञान बिलकुल भिन्न रहता है । ज्ञान, ज्ञानस्वभावी आत्मा के साथ अतिनिकट क्षेत्र में सदा एकमेक रहने से वह आत्मा के बिना नहीं रहता, इसलिए ज्ञान ही आत्मा है।
(२) आत्मा अनन्त गुणों को धारण करनेवाला है, इसलिए आत्मा ज्ञानगुण द्वारा ज्ञान है, दर्शन गुण द्वारा दर्शन है, चारित्र धर्म द्वारा आत्मा चारित्र है इत्यादि। ___ 'एकान्त ज्ञान को ही सर्वथा आत्मा मानने से तीन दोष आते हैं, वह बताते हैं -
(३) अब ज्ञान ही आत्मा है ऐसा एकान्त माना जाय तो गुण, द्रव्य १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२०३-२०४
२. वही, पृष्ठ-२०८
गाथा-२७ हो जाने से ज्ञानगुण का अस्तित्व नहीं रहेगा। ___ (४) गुण, गुणी होने से गुण का अभाव होता है। इसलिए आत्मा में ज्ञान नहीं रहा, इसलिए आत्मा को अचेतनपना आ जायेगा।
(५) विशेषगुण का अभाव होने से अर्थात् यदि आत्मा में ज्ञानरूप विशेषगुण नहीं हो तो आत्मा का अभाव होगा और विशेषगुण के अभाव होने से आत्मा का अभाव हो जायेगा। इसतरह यह तीन दोष बताये हैं।
(६) आत्मा सर्वथा ज्ञान ही है - ऐसा माना जाये तो गुणी, गुण हो जायेगा और ज्ञान को द्रव्य का आधार नहीं रहने से निराश्रयपने के कारण, ज्ञान का अभाव होगा।
(७) यदि, आत्मा एकान्त ज्ञानरूप हो तो शेष गुणों अर्थात् दर्शन, चारित्र, वीर्य, सुख आदि गुणों का अभाव होता है।
(८) विशेष गुणों का अभाव होने पर, उनसे संबंधित आत्मा का नाश होता है। जहाँ सुख-वीर्यादि विशेषगुण न हों तो वहाँ आत्मा भी नहीं होता।
आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है - ऐसा सर्वथा एकान्त नहीं है। जैसे, आत्मा द्रव्य से नित्य ही है, यह बात सही है - यह सम्यक् एकान्त है, किन्तु आत्मा नित्य ही है और किसी भी प्रकार से अनित्य नहीं है - ऐसा समझे तो एकान्त हो जाता है; वैसे ही ज्ञान, ज्ञान ही है - यह सही है; किन्तु आत्मा ज्ञान ही है - ऐसा सर्वथा एकान्त नहीं । ज्ञान लक्षण द्रव्य के साथ तादात्म्यपने है; किन्तु एक ज्ञान जितना ही आत्मा है - ऐसा नहीं है। ज्ञान द्वारा आत्मा, ज्ञान है; किन्तु ज्ञान के साथ अनन्तगुण भी हैं।"
उक्त सम्पूर्ण विश्लेषण का सार यही है कि आत्मा ज्ञानादि अनंतगुणों का अखण्डपिण्ड है, अनंतगुणमय अभेद वस्तु है । आत्मा के अनन्तगुणों में ज्ञान भी एक गुण है; इसकारण यह कहा जाता है कि ज्ञान आत्मा है। इसी आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि सुख आत्मा है, श्रद्धा आत्मा है, चारित्र आत्मा है; किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि आत्मा ज्ञान है. क्योंकि आत्मा अकेला ज्ञान ही महीं है, सुखादिरूप भी है १९-२१० २. वही, पृष्ठ-२११