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गाथा-१७
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प्रवचनसार अनुशीलन आत्मा स्वयं शुद्धपने उत्पन्न हुआ है - यह उत्पाद अपेक्षा है, अशुद्धपने का नाश हुआ है - यह व्यय अपेक्षा है और उस समय स्वयं ध्रुव है। इसप्रकार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य एक समय में है। यह लकड़ी जो टेढ़ी होती है, उसमें टेढ़े होनेरूप अवस्था का उत्पाद, सीधेरूप अवस्था का व्यय और स्वयं ध्रुव - इसप्रकार तीनों एकसाथ हैं। इसीतरह सिद्ध में समझना चाहिए।
सिद्ध में भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य लागू पड़ते हैं। वहाँ अविनाशीपना होने पर भी नया-नया अनुभव होता है । अविनाशीपना कहा है; इसकारण वहाँ परिणमन नहीं होता हो - ऐसा इसका अर्थ नहीं है। वहाँ अशुद्धता नहीं होती, किन्तु वहाँ भी समय-समय अवस्था बदलती है। यदि एक समय के लिए भी पलटने का स्वभाव न हो तो जो एक समय नहीं पलटे वह दूसरे समय में भी नहीं पलटे तो अनुभव ही नहीं होगा। इसप्रकार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य शुद्धस्वभावपने सिद्ध में भी लागू होता है।" उक्त गाथा के भाव को वृन्दावनदासजी इसप्रकार व्यक्त करते हैं -
(द्रुमिल) तिस ही अमलान चिदातम के, निहचै करि वर्तत है जु यही। उतपात भयो जो विशुद्ध दशा, तिसको न विनाश लहै कब ही ।। अरु भंग भये परसंगिक भावनि को उतपाद नहीं जो नहीं। पुनि है तिनके ध्रुव वै उतपाद, सदीव सुभाविकमाहिं सही ।।६५।।
उसी अमल चिदात्मा के निश्चय से अत्यन्त निर्मलदशा का जो उत्पाद हुआ है; उसका कभी नाश नहीं होगा तथा विकारी भावों का जो विनाश हुआ है; उन विकारी भावों का अब कभी भी उत्पाद नहीं होगा। ऐसी स्थिति होने पर भी उस आत्मा के स्वाभाविक उत्पाद-व्ययध्रुवत्व सदा रहेंगे।
(दोहा) १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-१४० २. वही, पृष्ठ-१४०-१४१ ३. वही, पृष्ठ-१४१
शुद्धुपयोग अराधि के सिद्ध भये सरवंग। जे अनन्त ज्ञानादि गुन तिनको कबहुँ न भंग ।।६६।। अरु अनादि के करम मल तिनको भयो विनाश । सो फिर कबहुँ न ऊपजै जहाँ शुद्ध परकाश ।।६७।। पुनि ताही चिद्रूप के वर्तत हैं यह धर्म । उपजन विनशन ध्रुव रहन साहजीक पद मर्म ।।६८।। द्रव्यदृष्टि कर ध्रौव्य है उपजत विनशत पर्ज ।
षट्गुनहानरु वृद्धि करि वरनत श्रुति भ्रम वर्ज ।।६९।। शुद्धोपयोग की आराधना करके जो आत्मा सर्वांग सिद्ध हो गये हैं; उन्हें प्रगट अनन्त ज्ञानादि गुणों का कभी भी नाश नहीं होगा। और अनादिकाल के भावकर्मों का ऐसा विनाश हुआ है कि वे फिर कभी उत्पन्न नहीं होंगे तथा आत्मा का शुद्धप्रकाश सदा कायम रहेगा। उसी आत्मा के उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व धर्म सहजभाव से सदा विद्यमान रहता है।
यह भगवान आत्मा द्रव्यार्थिकनय से ध्रुव और पर्यायार्थिकनय से उत्पन्न व नाश को प्राप्त होता है। इस आत्मा में षट्गुणी हानि और वृद्धि निरन्तर हुआ करती है - ऐसा शास्त्रों में निभ्रान्त रूप से कहा है।
इसप्रकार इस गाथा में यह कहा गया है कि प्रत्येक वस्तु का अनादि से अनंतकाल तक उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से संयुक्त रहना सहजस्वभाव है। __ अत: यद्यपि यह स्वयंभूसिद्ध परमात्मा संसार अवस्था के समान सिद्धअवस्था में भी निरन्तर बदलता रहेगा, उत्पाद-व्यय करता करता रहेगा; तथापि ऐसा कभी नहीं होगा कि वह सिद्ध अवस्था छोड़कर संसारी हो जाय; क्योंकि उसने संसार अवस्था का ऐसा व्यय किया है कि जिसका दुबारा कभी भी उत्पाद नहीं होगा और सिद्ध अवस्था का ऐसा उत्पाद किया है कि जिसका कभी नाश नहीं होगा।
तात्पर्य यह है कि सिद्धअवस्था का व्यय तो होगा, पर अगली