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प्रवचनसार अनुशीलन इस गाथा की उत्थानिका में लिखते हैं कि नित्यैकान्त और अनित्यैकान्त (क्षणिकैकान्त) के निषेध के लिए यह बताते हैं कि परिणाम और परिणामी में कथंचित् अभेद है।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि परिणाम और परिणामी द्रव्य में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद होता है।
जब दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा की बात चलती है, तब दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा को परिणाम अर्थात् पर्याय से भिन्न बताया जाता है; किन्तु जब धर्मात्मा, पुण्यात्मा या पापात्मा की बात चलती है, तब आत्मा को वर्तमान पर्याय से तन्मय बताया जाता है। यहाँ वर्तमान पर्याय से तन्मय आत्मा की बात चल रही है; अत: यहाँ द्रव्य और पर्याय के अभेद की मुख्यता है।
उक्त गाथा का अर्थ तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार किया गया है -
“परिणाम के बिना वस्तु अस्तित्व को धारण नहीं करती; क्योंकि वस्तु द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के द्वारा परिणाम से भिन्न देखने में नहीं आती; क्योंकि परिणाम से रहित वस्तु गधे के सींग के समान है, उसका दिखाई देनेवाले गोरस (दूध-दही आदि) इत्यादि के परिणामों के साथ विरोध आता है।
इसीप्रकार वस्तु के बिना परिणाम भी अस्तित्व को धारण नहीं करता; क्योंकि स्वाश्रयभूत वस्तु के अभाव में निराश्रय परिणाम को शून्यता का प्रसंग आता है।
वस्तु तो ऊर्ध्वतासामान्यस्वरूप द्रव्य में, सहभावी विशेषस्वरूप गुणों में तथा क्रमभावी विशेषस्वरूप पर्यायों में रही हुई और उत्पाद-व्ययध्रौव्यमय अस्तित्व से बनी हुई है; इसलिए परिणामस्वभावी है।"
जो व्यक्ति अध्यात्म के जोर में वस्तु को पर्याय से सर्वथा भिन्न मानना चाहते हैं, उन्हें आचार्य अमृतचन्द्र के उक्त कथन पर विशेष ध्यान देना
गाथा-१० चाहिए। यहाँ अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जिसप्रकार गधे के शिर पर सींग का अस्तित्व ही नहीं होता; उसीप्रकार पर्याय के बिना भी वस्तु का अस्तित्व संभव नहीं है। अरे भाई! परिणमन वस्तु का सहज स्वभाव है।
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में उक्त गाथा के भाव को सिद्धों पर घटित करके समझाते हैं। वे लिखते हैं कि सिद्धपर्यायरूप शुद्धपरिणाम के बिना शुद्धजीवपदार्थ नहीं है; क्योंकि संज्ञा, लक्षण और प्रयोजनादि के भेद होने पर भी सिद्धपर्याय और शुद्धजीव में प्रदेशभेद का अभाव है। ___ इसीप्रकार शुद्धजीव के बिना सिद्धपर्यायरूप शुद्ध परिणाम भी नहीं हो सकता; क्योंकि संज्ञादि संबंधी भेद होने पर भी उनमें परस्पर प्रदेशभेद नहीं है।
ध्यान रहे यहाँ परिणाम और परिणामी के अभेद पर ही जोर दिया गया है। ___ गाथा और उसकी टीका के भावों को अपने में समाहित करते हुए कविवर वृन्दावनदासजी उक्त तथ्य पर चार छन्दों में विस्तार से प्रकाश डालते हैं; जो मूलत: इसप्रकार हैं -
(सोरठा) दरबन बिन परिनाम परनति दरब बिना नहीं।
दरब गुनपरजधाम सहित अस्ति जिनवर कही ।।३२।। द्रव्य के बिना परिणाम और परिणाम के बिना द्रव्य नहीं होता। जिनेन्द्र भगवान ने द्रव्य का अस्तित्व गुण-पर्याय का धाम कहा है।
(मनहरण) केई मूढमती कहें द्रव्य में न गुन होत,
द्रव्य और गुन को न्यारो न्यारो थान है। गुन के गहन तैं कहावै द्रव्य गुनी नाम,
जैसे दंड धारै तब दंडी परधान है ।।