________________
६४
प्रवचनसार अनुशीलन गुण जो एक समय में हैं और उन समस्त गुणों की क्रमभावी पर्यायें एक समय में एक होती हैं । परिणाम अर्थात् पर्यायें । गुण में से नयी-नयी पर्यायें क्रमसर- क्रमबद्ध हुआ करती हैं। इसप्रकार ऊर्ध्वता - सामान्यरूप द्रव्य में, नित्यतादात्म्यरूप सहभावी गुणों में और उनकी क्रमभावी अनित्यतादात्म्यरूप पर्यायों में वस्तु रहती है।
छहों द्रव्यों को वस्तु कहा जाता है। एक-एक परमाणु भी वस्तु है, वे भी उनके द्रव्य-गुण-पर्याय में रहते हैं। परवस्तु के कारण किसी द्रव्य की पर्याय होती हो ऐसा नहीं है। द्रव्य-गुण एकरूप एकसाथ त्रिकाल रहते हैं और उत्पाद-व्ययरूप पर्याय एक गुण की एक पर्यायपने रहती है और वह क्रमबद्ध बदलती है।
वस्तु सामान्य द्रव्य-गुणरूप से त्रिकाल है। वर्तमान परिणाम नया उत्पन्न होता है, बदलता है; इसतरह वस्तु स्वयं अपने उत्पाद-व्ययव्यमय अस्तित्व से सिद्ध है, उसकी सत्ता उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य में समा जाती है; जो बाहर में किसी अन्य के साथ संबंध नहीं रखती; इसलिए वस्तु परिणामस्वभाववाली ही है।
वस्तु उत्पाद - व्यय - ध्रौव्ययुक्त सत् है। वह अपने अस्तित्व से बनी हुई है; इसका अर्थ यह है कि कोई नई वस्तु नहीं बनी है वह तो अनादि से है । द्रव्य तो सत् है, किन्तु उसकी अनादि-अनन्त पर्याय हैं, उनकी प्रत्येक समय की पर्यायें भी सत् हैं, जिसे कोई अन्य द्रव्यादि रचना करनेवाला नहीं है।
इसप्रकार प्रत्येक वस्तु, अपने परिणामस्वभावी होने से अपने द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव में रहकर, अपने परिणाम को करती है; किन्तु वह, स्वयं से भिन्न परद्रव्य के परिणाम को करने में समर्थ नहीं है - ऐसा भेदज्ञान वह वीतरागी - विज्ञान है ।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-८४
२. वही, पृष्ठ- ८५
गाथा - १०
६५
आत्मा के भान सहित और रागरहित, शुद्ध परिणाम का होना वह धर्म है; और यही आत्मा का चारित्र है। सम्यग्दर्शन - ज्ञान बिना स्वरूप में स्थिरता - शान्तिरूप परिणाम नहीं होता और उसरूप आतमा ही परिणमित होता है। परिणाम, परिणामी वस्तु बिना नहीं होते। अहो ! यह सिद्धान्त समझे तो यथार्थ स्वतंत्र वस्तुस्वरूप का निर्णय हो और वही आत्मा सुखरूप - धर्मरूप परिणमित होता है।
परिणाम अर्थात् वस्तु का जो कार्य है, उससे वस्तु पृथक् नहीं है । वस्तु त्रिकाली तो हो और उसकी वर्तमान अवस्था न हो - ऐसा कभी नहीं होता। वर्तमान परिणाम कार्य है, उसका कारण वह द्रव्य है, किन्तु कोई परवस्तु उसका कारण नहीं है। परद्रव्य को कारण कहना - यह व्यवहार का कथन है।
इसप्रकार परिणाम, वस्तु के बिना नहीं होते। मिथ्यात्व, राग, दया, - दानरूप परिणाम अथवा सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप परिणाम आत्मा के बिना नहीं होते । परिणामी बिना परिणाम नहीं और परिणाम ( परिणमन) बिना परिणामी वस्तु नहीं होती। इसतरह शुद्ध अथवा अशुद्ध परिणाम, वह वस्तु का परिणाम है। आत्मा बिना परिणमन नहीं होता। इसलिए निश्चित होता है कि परवस्तु बिना परिणाम होता है; किन्तु स्ववस्तु के बिना परिणाम नहीं होता।
वस्तु तो द्रव्य-गुण- पर्यायमय है, वहाँ त्रिकाली ऊर्ध्वप्रवाहसामान्य वह द्रव्य है, द्रव्य के सम्पूर्ण भाग में व्यापक नित्यतादात्म्यपने साथ रहनेवाली शक्तियाँ गुण हैं और क्रम-क्रम से होनेवाले भेद पर्यायें हैं। ऐसे द्रव्य-गुण- पर्याय की एकता के बिना वस्तु नहीं होती ।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ- ८५-८६ २. वही, पृष्ठ-८६