Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 13
________________ से कर्मराशि भस्म होने लगती है। 'प्राणायाम' की इस विधि में असमर्थ साधु वाचिक जप' के द्वारा मंत्रजाप कर सकता है; परन्तु वह अन्य किसी को सुनाई न पड़े, इतने मंद स्वर में होना चाहिए। फिर भी मानस एवं वाचिक जापों के फल में बड़ा अंदर है। दण्डकों के उच्चारण से सौ गुना अधिक पुण्यसंचय वाचिक जप' में तथा हजारगुणा अधिक पुण्यसंचय 'मानस जप' में होता है। 'कायोत्सर्ग' ईर्यापथिक, दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक एवं उत्तमार्थ —इन सात अवसरों पर किये जाने से कालक्रमानुसार सात प्रकार के माने गये हैं। इनमें उच्छ्वास के अनुसार भी अन्तर पड़ता है। जैसेकि 27 उच्छ्वास दैवसिक में रात्रिक में 54 उच्छ्वास, पाक्षिक में 300 उच्छ्वास, चातुर्मासिक में 400 उच्छ्वास, वार्षिक में 500 उच्छ्वास आदि का क्रम माना गया है। इनके अतिरिक्त गोचरी' से आने पर, लघु व दीर्घशंका के बाद 25-25 उच्छ्वास, ग्रंथारम्भ एवं ग्रंथ-समाप्ति पर 27-27 उच्छ्वासों का कायोत्सर्ग किया जाता है। ___कायोत्सर्ग के लिए पूर्व दिशा, उत्तर दिशा अथवा पूर्वोत्तर दिशा (ईशान कोण) की ओर मुँह करके अथवा जिनप्रतिमा की ओर मुंह करके आलोचना के लिए कायोत्सर्ग' किया जाता है। यह 'कायोत्सर्ग' एकान्त एवं बाधारहित (दूसरों के आवागमनरहित) स्थान में करना चाहिए। _ 'कायोत्सर्ग' के प्रयोजन बताते हुए आचार्य भट्ट अकलंकदेव लिखते हैं—“नि:संगत्व, निर्भयत्व, जीवित रहने की आशा के त्याग, दोषों का उच्छेदन, मोक्षमार्ग की प्रभावना एवं उसके निमित्त समर्पित रहने (तत्परत्व) आदि की दृष्टि से 'कायोत्सर्ग' करना आवश्यक है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि शरीर का त्याग तो मरण होने पर ही होता है, फिर मरण के बिना कायोत्सर्ग' कैसे संभव होता है? इसका उत्तर 'भगवती आराधना' ग्रंथ की गाथा 116 की टीका में निम्नानुसार दिया गया है— “शरीर का बिछोह न होते हुए भी शरीर की अशुचिता, अनित्यता, असारता, दु:खहेतुता एवं अनंत संसार में परिभ्रमण का कारणपना — इत्यादि दोषों का विचार कर यह शरीर मेरा नहीं है और मैं इसका स्वामी नहीं हूँ' -ऐसे संकल्प से शरीर के प्रति आसक्तिभाव का अभाव हो जाने से शरीर का त्याग सिद्ध हो जाता है। जैसे कि प्रियतमा पत्नी से कुछ अपराध हो जाने पर उसी घर में पति के साथ रहती हुई भी प्रेम हट जाने से वह 'त्यागी हुई' कही जाती है, उसीप्रकार आसक्ति के अभाव में यहाँ कायोत्सर्ग' जानना चाहिए। तथा साधुजन शरीर का बिछोह होने के कारणों को दूर करने में निरुत्सुक रहते हैं, इसलिए भी उनके 'कायोत्सर्ग' कहा जाना युक्तिसंगत ही है।" ___ 'निश्चय कायोत्सर्ग' के बारे में आचार्य पद्मप्रभमलधारिदेव नियमसार' की टीका में लिखते हैं प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 10 11

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