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अन्य कई उसी प्रकार की पाण्डुलिपियाँ आजकल भी उपलब्ध हैं। साहू कुन्थुदास लक्षाधिपति थे ही, अत: उनके सचित्र ‘महापुराण' की कोई प्रति स्वर्णाक्षरों में तथा रत्नजटित भी रही हो, तो कोई असम्भव नहीं। महाकवि रइधू की स्वरचित पूर्ववर्ती रचनायें :
साहू कुन्थुदास ने महाकवि रइधू से तसट्ठि-महापुराण' के प्रणयन की प्रार्थना करते समय कहा है कि "आपने इसके पूर्व अनेक ग्रन्थों की रचना की है।" इससे यह अनुमान होता है कि रइधू प्रस्तुत 'महापुराण' के प्रणयन के पूर्व अनेक ग्रन्थ लिख चुके थे; किन्तु उक्त उल्लेख से यह पता नहीं चलता कि कवि के वे ग्रन्थ कौन-कौन से थे, जो लसटिठ० महापुराण' के पूर्व लिखे जा चुके थे (1/2/9)। रइधू ने अपने 'सुकोसलचरिउ' एवं 'सम्मत्तगुणणिहाणकव्वं' को छोड़कर अपने अन्य किसी भी ग्रन्थ में उनका रचनाकाल अंकित नहीं किया। अत: यह जानकारी प्राप्त करने मे अनेक कठिनाइयाँ है कि कौन-कौनसा ग्रन्थ किस ग्रन्थ के बाद लिखा गया? महाकवि ने यद्यपि अपने कुछ ग्रन्थों में अपनी पूर्वरचित रचनाओं के नामोल्लेख किये हैं; किन्तु उन उल्लेखों में भी कुछ ऐसी विसंगतियाँ है कि उनसे भी उनका रचना-क्रम-निर्धारण सम्भव नहीं हो पाया है। हाँ, रइधूकृत सम्मइजिणचरिउ, णेमिणाहचरिउ, सावयचरिउ एवं जिमंधरचरिउ में कवि की पूर्वरचित रचनाओं में तसट्ठि महापुराण' की रचना हो चुकी थी; किन्तु उक्त चारों रचनाओं में उक्त तसट्ठि महापुराण' के साथ-साथ रइधू के पासणाहचरिउ, मेहेसरचरिउ, सिरिवालचरिउ, बलहद्दचरिउ, सुदंसणचरिउ, धण्णकुमाराचरिउ, जसहरचरिउ, वित्तसारू, जिमंधरचरिउ, कोमुइकहपवंधु, सिद्धंतत्थसारू, पुण्णासवकहा, सोलहकारणभावणा नामक तेरह ग्रन्थों के भी उल्लेख है। इन, उल्लेखों से ज्ञात होता हे कि तसट्ठि० महापुराण' की रचना पूर्वोक्त चार रचनाओं के पूर्व तथा उनमें उल्लिखित तेरह रचनाओं में से आगे-पीछे कभी हुई होगी। पूर्ववर्ती साहित्यकार : __ रइधू ने अपने पूर्ववर्ती दो कवियों के नामोल्लेख बड़े ही आदरपूर्वक किये हैं—आचार्य जिनसेन एवं महाकवि कव्वपिसल्ल। 'कव्वपिसल्ल' अपभ्रंश के महाकवि पुष्पदन्त ही है। जिनकी 'अभिमानमेरु' एवं 'काव्यपिशाच' ये दो उपाधियाँ प्रसिद्ध रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि रइधूकाल में पुष्पदन्त कव्वपिसल्ल' नाम से ही अधिक प्रसिद्ध रहे होंगे। उक्त दोनों महाकवियों के महापुराण ही प्रस्तुत तसहि० महापुराण' के मूलस्रोत रहे हैं। कवि का आत्म-परिचय :
आत्म-परिचय देते हुए महाकवि रइधू ने तसट्ठि महापुराण' में अपने को संघवी देवराज तथा उनकी भार्या चन्द्रश्री का पौत्र, हरिसिंह एवं उनकी भार्या 'विजयश्री का पुत्र' तथा 'उदयराज का पिता' कहा है। कवि ने अपने भाई, भाभी एवं भतीजे के नामोल्लेख भी
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99