Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 78
________________ अपना जन्मजात-बैरभाव भूलाकर वन-प्रदेश में निर्भय विचरण करते हैं। और ऐसा वन 'तपोवन' की संज्ञा पाकर प्राणीमात्र को त्राण प्रदान करता है। एकान्तवासी वीतरागी मुनियों को जो सुख मिलता है, वह देवराज और चक्रवर्तियों को भी दुर्लभ है “न सुखं देवराजस्य न सुखं चक्रवर्तिनः । यत्सुखं वीतरागस्य मुनेरेकान्तवासिनः।।" इस सुदूर अति उत्तुंग हिमालयक्षेत्र में आचार्य मुनिश्री विद्यानन्द जी का सन् 1970 में 170 दिवसों का जंगल में मंगलकारी तपोप्रवास न केवल जैनसमाज, अपितु मानव-मात्र के लिये आत्मकल्याणकारी हो गया। तभी से जैनसमाज में 'बद्रीनाथ-आदिनाथ यात्रा' चर्चा का विषय बनी। आचार्य मुनिराज श्री की सप्रेरणा से ही वहाँ पृथक् से 'आदिनाथ-आध्यात्मिक अहिंसा फाउण्डेशन भवन' बन गया है; जिसमें ऋषभदेव के प्राचीनतम चरण स्थापित हैं। इसके पृष्ठभाग में 100 व्यक्तियों के लिये प्रवास-भवन है, जो सुविधाओं से युक्त हैं। यहाँ से बद्रीनाथ का मन्दिर लगभग आधा किलोमीटर मात्र है। ग्रीष्मावकाश होने पर 8 मई '98 को बीकानेर से जयपुर अपने निवास स्थान (श्री जीनगर-दुर्गापुरा) आने पर मेरी सहधर्मचारिणी श्रीमती स्नेहलता ने बताया कि बुन्देलखण्ड यात्रा-संघ, जयपुर ने दिनांक 23 मई '98 को बद्रीनाथ की यात्रा जाने का निर्णय लिया है। हमें भी चला चाहिये, मैंने इस भयंकर गर्मी में यात्रा करने में अरुचि दिखायी। शासन भी ग्रीष्मावकाश आराम के लिये जो देता है। पत्नी ने मुझे विश्वास में लेते हुय कहा कि यह यात्रा बड़ी ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण धार्मिक मूल्यवाली है। संघ बिना ऐसी बड़ी यात्रा नहीं हो पाती है। फिर इस समय छुट्टियाँ भी हैं, अत: इन्कार मत करो और यात्रा-संघ के संयोजक श्री नेमीचन्द जी काला और श्री प्रकाशचन्द जी तेरापंथी से मिलकर आरक्षण करा लो। सहधर्मचारिणी के धर्मयात्रा के इस आग्रह को मैं टाल नहीं सका। दिनांक 17.5.98 को दुर्गापुरा के दिगम्बर जैन मन्दिर में आयोजित बुंदेलखण्ड यात्रा-संघ के पूजा-गोष्ठी के कार्यक्रम में उक्त यात्रा में जाने का निश्चय हुआ। ___इन्हीं दिनों समाचार-पत्रों में दो-तीन बार बद्रीनाथ-केदारनाथ की दुर्गम पर्वतीय यात्रा-मार्ग में तीर्थयात्रियों की बस दुर्घटना के समाचार प्रकाशित हुये; जिसमें बस के नीचे गिरने एवं कईयों के हताहत के समाचार थे। इन समाचारों ने मेरे मन को भयभीत कर दिया। इस यात्रा के विषय में संकल्प-विकल्प-आशंकायें उठने लगीं। यात्रा स्थगित करने तक के विकल्प मन में आने लगे। फिर संयोजकों से यह जानकर कि दुर्घटना वाले मार्ग की यात्रा रद्द कर दी है, हमें तो सीधे केवल बद्रीनाथ ही जाना है', मैं विश्वस्त हुआ। भगवान् बद्रीनाथ-आदिनाथ को प्रणाम किया। तीर्थक्षेत्रों की परोक्ष-वन्दना का भी प्रत्यक्ष-वन्दना-सदृश आध्यात्मिक महत्त्व होता 1076 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99

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