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पुस्तक समीक्षा
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पुस्तक का नाम : प्रमेयकमलमार्तण्ड-परिशीलन लेखक : प्रो० उदयचन्द्र जैन प्रकाशक : प्राच्य श्रमण भारती, 12/1, प्रेमपुरी, मुजफ्फरनगर-251001 (उ.प्र.) मूल्य : पचास रुपये, (डिमाई साईज़, पेपरबैक, 38+284 पृष्ठ) संस्करण : प्रथम संस्करण 1998, ई०
भट्ट अकलंकदेव के वचनामृत-सिन्धु से न्याय के रत्नों को चुनकर आचार्य माणिक्यनन्दि जी ने परीक्षामुखसूत्र' नामक जैनन्याय के आद्यसूत्रग्रंथ का प्रणयन किया। इस पर प्रमेयरत्नमाला (लघु अनन्तवीर्यकृत), प्रमेयरत्नालंकार (18वीं शताब्दी के भट्टारक चारुकीर्ति-विरचित), न्यायमणिदीपिका (अजितसेन रचित) आदि टीका ग्रन्थों के अतिरिक्त पं० जयचंद जी छाबड़ा की 'भाषावचनिका' एवं पं० विजयचन्द्र विरचित 'अर्थप्रकाशिका' नामक व्याख्या भी मिलती है। किन्तु परीक्षामुखसूत्र के सूत्रों का जैसा प्राञ्जल एवं विस्तृत भाष्य आचार्य प्रभाचन्द्र जी ने 'प्रमेयकमल-मार्तण्ड' नामक ग्रंथ में किया है, उतना कहीं नहीं मिल पाता है। इसमें दार्शनिक गहराईयों को न्याय की सूक्ष्म प्रज्ञा से मत-मतान्तर की संतुलित एवं विशद समीक्षापूर्वक विवेचित किया गया है।
इस ग्रंथ पर स्वनामधन्य विद्वद्वर्य डॉ० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य ने जो कार्य किया था, वह अपने आप में एक मील के पत्थर' की भाँति अविस्मरणीय एवं अतिमहत्त्वपूर्ण है। न्यायाचार्य डॉ० दरबारीलाल जी कोठिया ने भी इस क्षेत्र में कई महत्त्वपूर्ण दिशानिर्देश खोज निकाले हैं। उन सबको दृष्टिगत रखकर अनतिविस्तार एवं सुबोधगम्यता की दृष्टि से डॉ० उदयचन्द्र जैन वाराणसीवालों ने यह कृति निर्मित की है।
इसमें प्रारंभिक 242 पृष्ठों में परीक्षामुखसूत्र' के छहों परिच्छेदों के सूत्रों का प्रमेयकमलमार्तण्डकार के भाष्य को सरलीकृत करके संक्षिप्तरूप में प्रस्तुत किया है। वह अपने आप में श्रमसाध्य एवं प्रतिभाद्योतक रहा है। इसके बाद जो प्रथम परिशिष्ट के अन्तर्गत 'कुछ विचारणीय' बिन्दुओं की चर्चा विद्वान् लेखक ने की है, उनमें से एक-दो बिन्दु वस्तुत: विचारणीय हैं; क्योंकि विद्वान् लेखक के अपने दिशानिर्देशों से जैनागम की मान्यतायें एवं अवधारणायें पूर्णत: मेल नहीं खाती हैं। फिर भी विचार-सामग्री उन्होंने अपनी ओर से आधार-सहित ही प्रस्तुत की है, भले ही वे आधार आधुनिक विद्वानों के विचार रहे हों। कुल मिलाकर यह कृति संग्रहणीय तो है ही; पठनीय, मननीय एवं चर्चनीय भी हैं। इस श्रेष्ठ कार्य के लिए विद्वान् लेखक एवं प्रकाशक -दोनों ही साधुवाद के पात्र हैं।
-सम्पादक **
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99
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