Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 93
________________ हैं, तो कहीं-कहीं 'अन्वयार्थ' में अपनी ओर से भी पाठ मूलपाठ के रूप में जोड़ दिये गये हैं। अनुवाद जहाँ समझ में नहीं आया, तो वहाँ मूल संस्कृत का पाठ ज्यों का त्यों रख दिया है; जैसेकि 'धर्म अनुप्रेक्षा' के वर्णन-प्रसंग (पृ०79) में 'धर्मस्वाख्यातत्त्वानुप्रेक्षा' इस मूलपाठ का अनुवाद करते समय 'धर्मस्वाख्यातत्त्वानुप्रेक्षा है' —यह अनुवाद कर दिया है। 'महत्ता' शब्द के स्थान पर 'महत्वता' जैसे विचित्र प्रयोग (पृ०82) किये गये हैं। 'श्रुणोति' (सुनता है) के स्थान पर 'शृणोति' पाठ (कारिका 117) दिया गया है। यह मूलग्रंथ के स्वरूप को विकृत करना है। इसीप्रकार 'आस्रव' ओर 'आश्रव' के अन्तर का बोध भी नहीं रखा गया है। कारिका 84 में अन्वयार्थ में किसी प्रकार का चितवन करते रहने से उसके ध्यान का अभ्यास बना रहता है' - यह अपनी ओर से जो वाक्य जोड़ा गया है, वह मूल अर्थ को स्पष्ट करने की जगह भ्रमित करता है। कई जगह कई शब्दों के अर्थ समझ न पाने के कारण छोड़ भी दिये हैं। उद्धत गाथाओं/पद्यों का अर्थ करते समय 'अर्थ' शीर्षक कहीं दिया है, तो कहीं यों ही छोड़ दिया है। सम्पादन एवं प्रूफसंशोधन-सम्बन्धी श्रुटियाँ तो प्रतिपृष्ठ पच्चीस के औसत से विद्यमान हैं। अनुपलब्ध कृतियों का प्रकाशन निश्चय ही स्तुत्यकार्य है, किंतु उसे करनेवाले व्यक्ति भी उस विधा के विशेषज्ञ होने चाहिये तथा उन्हें प्रामाणिक रीति से निष्ठापूर्वक संपादन-अनुवाद के कार्य करने चाहिये। उपेक्षापूर्वक, जल्दबाजी में एवं चलताऊ ढंग से किये गये प्रकाशन त्रुटियों के भंडार बनकर धन की तो हानि करते ही हैं, ग्रंथों का स्वरूप भी संदिग्ध बना देते हैं। ___ अध्यात्म एवं योग-ध्यान जैसे उत्कृष्ट विषयों के इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथरत्न को इन विषयों के साथ-साथ भाषा, संपादनकला एवं अनुवादविधि में निष्णात विद्वान् के द्वारा संपादित किया जाना ही श्रेयस्कर होता। आशा है समाज की प्रकाशन-संस्थायें व व्यक्ति इस क्षेत्र में सीख लेंगे और सुंदर, प्रामाणिक आदर्श प्रकाशनों द्वारा समाज एवं देश में तत्त्वज्ञान का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार प्रभावी ढंग से करने की प्रेरणा लेंगे। वैसे 'ध्यानोपदेशकोष' अपरनाम 'योगसारसंग्रह' नामक यह कृति बहुत दिनों से अनुपलब्ध थी, अत: इसे उपलब्ध कराने की दृष्टि से यह प्रयास प्रशंसनीय है। संस्थाओं एवं विद्वानों को मिलकर यह प्रयत्न करना चाहिये कि अद्यावधि अप्रकाशित ग्रंथों, विशेषत: प्राचीन आचार्यों एवं मनीषियों के मूल एवं टीकाग्रंथों को विधिवत् प्रामाणिक संपादन, अनुवादपूर्वक आदर्श रीति से शुद्ध प्रकाशन करावें। तथा अनुपलब्ध महत्त्वपूर्ण प्रकाशित ग्रंथों को भी पुन: समीक्षणपूर्वक अपेक्षित परिमार्जन के साथ प्रकाशित करावें। -सम्पादक ** 'समयसार' ही हमारी अस्मिता का प्रतीक है। प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 र '99 .091

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