Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 95
________________ आचार्य विद्यानंद जी का वक्तृत्व पर आधारित लेख बड़ा ज्ञानवर्धक है, मौलिक है । उनकी लेखनी और वाणी की गुणवत्ता किसे प्रभावित न करेगी। 1 प्राकृत और शौरसेनी भाषा साहित्य के विकास में इस पत्रिका की अपनी पहचान है शोध-पत्रिका के रूप में इसका अपना महत्त्व है । - निजामुद्दीन, काश्मीर ** 'प्राकृतविद्या' का अप्रैल-जून '99 का अंक स्वस्थ सामग्रीमय है । आप बहुत सक्रिय हैं, यह खुशी की बात है । शौरसेनी, मागधी, अर्धमागधी के भाषायी विवाद में हमारे पंडित बाल की खाल निकालने में दत्तचित्त हैं। पत्रिका में सांस्कृतिक मूल्यों पर सामग्री कम आ रही है, कृपया संतुलन बनाए रखें। - रवीन्द्र कुमार जैन, मद्रास ** © आप द्वारा संपादित 'प्राकृतविद्या' के अंक यथासमय प्राप्त हो रहे हैं। मुझे लिखते हुए प्रसन्नता होती है कि प्रत्येक अंक की सामग्री जो पाठकों को परोसी जा रही है, वह विविध विषयों से भरपूर होने के कारण यथार्थ में पाठक की ज्ञानवृद्धि में सहायक है। शौरसेनी प्राकृतभाषा-विषयक लेख उसकी प्राचीनता एवं समीचीनता के साथ ही उसकी उपयोगिता व सफलता को भी सिद्ध कर रहे हैं । उत्तर प्रदेश में जन्मी भाषा का दक्षिण में समुद्भव आचार्यों द्वारा आध्यात्मिक एवं सैद्धांतिक जैन- वाङ्मय के लेखन में उपयोग करना उसके गौरव को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है। पत्रिका में परमपूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी महाराज के महत्त्वपूर्ण लेखों का प्रकाशित होना तथा आपके विविध आयामी लेखों और संकलित सामग्री का चयन एवं अन्यान्य विद्वज्जनों के वैदुष्यपूर्ण लेखों का होना उसकी उपयोगिता दर्शाने तथा उन्नयन में (पत्रिका के) परम सहायक है। यदि इसमें धार्मिक कथाओं का भी समावेश किया जाये, तो उपयोगिता और भी बढ़ जायेगी। मैं हृदय से पत्रिका की उन्नति चाहता हूँ । – नाथूराम डोंगरीय जैन, इंदौर ** ● 'प्राकृतविद्या' का संयुक्तांक अंक प्राप्त हुआ, अंक अच्छा है, जानकारी ऐसी मिलती है, जो प्राय: बिना प्रयत्न के उपलब्ध नहीं होती, न ही हो सकती । आशा है साहू जी के जाने के बाद भी प्रगति का क्रम तो चलता रहेगा। उनका योगदान इतना अधिक था अगला समय ही मूल्यांकन कर सकेगा। उनकी तत्परता एक बार व्यक्तिगत मुलाकात में जानी जाती थी । -नरेन्द्र कुमार जैन, भोपाल ** • आप द्वारा सम्पादित 'प्राकृतविद्या' नामक त्रैमासिक पत्रिका का अप्रैल-जून '99 का नया अंक प्राप्त हुआ। पढ़कर विशेष प्रसन्नता हुई। इसमें जो सम्पादकीय एवं अन्य लेख हैं । वे सभी सुरुचिपूर्ण एवं प्राकृतभाषा के प्रचार-प्रसार के साथ ही साथ जैनदर्शन की प्रतिष्ठा में चार चाँद' लगाते हैं। इसी श्रृंखला में 'पहिले तोलो फिर बोलो', प्राकृत में नाम, आख्यात, ‘उपसर्ग और निपात' तथा ‘तिलोयपण्णत्ती', 'पंचत्थिकायसंगहसुत्तं' आदि विशेष महत्त्व रखते हैं । आपके शोधपूर्ण प्रयास एवं कार्य सराहनीय हैं। इसके स्थायी स्तंभ भी व्यापक बौद्धिक आयाम प्रदान करते हैं । — पं० कैलाश चन्द मलैया शास्त्री, फागी (राज० ) ** प्राकृतविद्या— जुलाई-सितम्बर '99 ☐☐ 93

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