________________
हमारी बद्रीनाथ-यात्रा
-डॉ प्रेमचन्द्र रांवका भारत राष्ट्र के आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विकास में जैनधर्म के तीर्थंकरों, आचार्यों एवं सन्त मनीषियों का महान् योगदान रहा है। उत्तर से दक्षिण ओर पूर्व से पश्चिम समग्र भारत को जैनों ने अपना राष्ट्र माना। धर्म का प्रचार करनेवाले तीर्थंकरों के जन्म, तप एवं निर्वाण-स्थल अलग-अलग रहे। ऐसे सभी निर्वाण-स्थलों की वन्दना विशेषत: की गई है:
सम्मेदगिर गिरनार चम्पा, पावापुरी कैलास को।
पूजों सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि निवास को।। आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव का जन्म अयोध्या नगर में हुआ; जबकि उनकी तपोभूमि एवं निर्वाण-स्थल कैलाश पर्वत रहा। भगवान् अरिष्टनेमि का जन्म मथुरा में हुआ, पर उनका साधनास्थल गिरनार पर्वत रहा। तीर्थंकर सुपार्श्व व पार्श्वनाथ का जन्म-स्थल वाराणसी रहा; पर निर्वाण-स्थल बिहार का सम्मेद शिखर बना। अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ने अपने शिष्य चन्द्रगुप्त व अन्य मुनियों के साथ दक्षिण-भारत कर्नाटक में जैनधर्म का प्रचार किया। उन्होंने श्रवणबेलगोला को अपनी साधना-स्थली बनाया। कालान्तर में इसी स्थल पर अपने गुरु आचार्य नेमिचन्द्र के निर्देशन में सेनापति चामुण्डराय ने प्रथम मोक्षगामी बाहुबलि की विश्वविख्यात 57 फुट उत्तुंग अद्भुत मनोज्ञ मूर्ति का निर्माण कराया। इसप्रकार पूर्व में सम्मेदशिखर, पश्चिम में गिरनार, उत्तर में अष्टापद कैलाश और दक्षिण में श्रवणबेलगोला जैसे तीर्थक्षेत्रों के रूप में जैनधर्म एवं समाज ने समुद्री सीमाओं से लेकर हिमालय-पर्यन्त समस्त राष्ट्र को भावनात्मक एकता के सूत्र में पिरोये रखा है। ___ चौबीस तीर्थंकरों में से तेईस तीर्थंकरों के निर्वाण स्थलों की यात्रा-वन्दना का पावन अवसर तो हमें मिलता रहा; परन्तु सुदीर्घकाल तक प्राकृतिक परिवर्तनों, हिमालय पर्वत पर जाने की दुःसाध्य एवं साधनों के अभाव के कारण प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के निर्वाणस्थल 'अष्टापद कैलाश पर्वत' की वन्दनार्थ यात्रा सम्भव नहीं हो सकी। केवल पूजा-भक्ति में अर्घ्य चढ़ाकर ही सन्तोष करके परोक्ष वन्दना कर भक्ति-भावना व्यक्त की जाती रही है। चौबीस तीर्थंकरों की निर्वाण-भूमियों के प्रति हमारी श्रद्धा सर्वविदित है। इनमें भी प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की निर्वाण-स्थली होने के कारण 'अष्टापद' तो सर्वाधिक पूज्य पुण्यभूमि है। ____ यह 'अष्टापद कैलाश पर्वत' सैकड़ों वर्षों से वैष्णव तीर्थ 'बद्रीनाथ धाम' के रूप में प्रसिद्ध रहा है। भगवान बद्रीनाथ की मूर्ति का चित्र जब दृष्टिपथ में आया, तो इसे
0074
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99