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यहाँ दिगम्बर जैन मन्दिर में भगवान ऋषभदेव के प्राचीनतम चरण स्थापित हैं। मन्दिर में सेवार्थ महाराष्ट्र का एक जैन युवक मई से अगस्त तक चार माह रहता है। मन्दिर के पीछे विश्रामगृह के पास एक बड़े हाल का भी निर्माण हो गया है। जिसमें जून '98 के अन्तिम सप्ताह में पंचकल्याणक होकर जिनप्रतिमायें विराजमान की जावेंगी। __ चारों ओर हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य कल-कल-निनादिनी अलकनन्दा के वेग से युक्त बदरीनाथ को प्राकृतिक सुषमा ने हमारे तन-मन को शान्ति-सुधा से परितृप्त कर दिया। बदरी वृक्षों की बहुलता के कारण यह स्थान 'बदरीनाथ' कहलाता है। वैसे श्रीनगर-गढ़वाल से बदरीनाथ तक का क्षेत्र 'देवभूमि' के रूप में प्रसिद्ध है। बदरीनाथ में ही अलकनन्दा का उद्गम हुआ है। यह आगे जाकर मन्दाकिनी और गंगा से मिलती है और सम्पूर्ण भारत में सुख-शान्ति और एकता का सन्देश लेकर प्रवाहित होती है।
सायंकालीन भोजन कर हम लोग भ्रमण के लिये निकले। बदरीनाथ मन्दिर-मार्ग की ओर चलने लगे। परन्तु विद्युत के चंचल स्वभाव ने हमें आगे बढ़ने से रोक दिया। विवश हो अज्ञातमार्ग होने से विश्रामगृह को लौट चले। फिर भी हमारे दो सहयात्री श्री बालचन्द दीवान एवं श्री विमल कुमार सौगाणी अंधकार को भी परास्त कर मार्ग की जानकारी पाकर भ० बदरीनाथ के उस मुख्य मन्दिर में जा पहँचे और भगवान के संध्यावस्था के दर्शन कर ही आये। जो विश्रामस्थल से 1% कि०मी० दूर है। विशाल नदी पर बने लोहे के पुल के मार्ग से मन्दिर तक पहुँचना होता है। मन्दिर भवन ऊँचाई पर है, जो बहुत दूर से दिखाई देता है। नीचे अलकनन्दा नदी अपने वेगमय प्रवाह से मानों भगवान् आदिनाथ (बदरीनाथ) के चरण स्पर्श करने के लिये मन्दिर तक पहुँचने को उद्यत हो रही है। हम लोग दिनांक 28/5/98 को तड़के उठकर 5 बजे पूर्व ही बदरीनाथ मन्दिर पहुँच गये। दर्शनार्थियों की पंक्ति में लग गये। ठीक 5 बजे मन्दिर के कपाट खुले। सभी ने उच्च स्वर से आदिनाथ-बद्रीनाथ का जयघोष किया 5 से 6 बजे तक प्रतिमा के अभिषेक का कार्य सम्पन्न होता है। मन्दिर भवन के ठीक मध्य में शिखरयुक्त प्रतिमा-मन्दिर है, जिसके गर्भगृह में उच्चासन पर प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमा-मन्दिर के चारों ओर बरामदों में शिव, ब्रह्मा, विष्णु, व्यास व अन्य ऋषियों के चित्र एवं मूर्तियाँ शोभायमान हैं। ___ एक गौरवर्ण सौम्य युवक गर्भगृह में हाथों में जल-कलश लिये अन्य द्वार से प्रविष्ट हुआ। मन्दिर के अन्य व्यक्तियों ने इसके चरण स्पर्श किये। यह ब्राह्मण युवक बालब्रह्मचारी बताया गया। बाल-ब्रह्मचारी ही अभिषेक कर सकता है। यह युवक अभिषेक पात्र के साथ प्रतिमा के सन्निकट पहुँच तीन बार शिरोनत हुआ। प्रतिमा पर के आवरण हटाये। पुन: प्रतिमा को तीन बार प्रणामांजलि की। प्रतिमा के पूर्ण दिगम्बर
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99
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