Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 87
________________ वर्ष 1998 में महावीर जी में स्थित भगवान् महावीर की प्रतिमा के 1000 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में ‘सहस्राब्दी समारोह' बड़े पैमाने पर मनाया गया, जिसमें श्रावक सम्मेलन, विद्वत सम्मेलन, महिला सम्मेलन आदि अनेक कार्यक्रमों के साथ अभिषेक का कार्यक्रम प्रतिदिन बड़ी व्यवस्थित रीति से चलता रहा। इस अवसर पर आचार्यश्री विद्यानन्द जी की उपस्थिति ने समारोह में चार चाँद लगा दिये। ___विगत कुछ वर्षों से पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी एक अनोखे अभियान में लगे हुए हैं। वे पूरे राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्राकृत की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं। इस हेतु देश के विश्वविद्यालयों में प्राकृत का पाठ्यक्रम चालू कराने हेतु उन्होंने अपने प्रयास प्रारम्भ कर दिये हैं। आचार्यश्री की यह विशेषता है कि जिस कार्य को हाथ में लेते हैं, उसे सर्वोच्च शिखर पर पहुँचाकर ही चैन लेते हैं। उनकी यह हार्दिक अभिलाषा है कि संस्कृत अकादमी की तरह देशों में प्राकृत अकादमी' की स्थापना हो तथा प्राकृत' को लोग 'संस्कृत' के समान ही जानें, समझें । कुन्दकुन्द भारती से त्रैमासिक रूप में प्रकाशित होने वाली 'प्राकृतविद्या' पत्रिका ने जैन पत्रिकाओं में मूर्धन्य स्थान बना लिया है। जिस शौरसेनी के गौरव को लोग भूलते जा रहे थे, उसे प्राकृत-साहित्य की उपलब्ध सबसे प्राचीन भाषा सिद्ध करने और बड़े-बड़े विद्वानों को अपनी मान्यता से सहमत करने का आचार्यश्री का प्रयास आज के विद्वत्समुदाय में आदर की दृष्टि से देखा जाता है। शौरसेनी में निबद्ध दिगम्बर आगम प्राकृतभाषा की दृष्टि से सबसे प्राचीन आगम है, इसका उद्घोष पूरी सामर्थ्य के साथ करने वाले आचार्यश्री विद्यानन्द जी समाज को अपने भाषायी इतिहास के गौरव की याद दिलाने के कारण जन-जन में और भी अधिक श्रद्धा के केन्द्र बन गये हैं। उनकी प्रेरणा से प्राकृत जन-जन में लोकप्रिय होगी तथा राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उसका अध्ययन भारतीय संस्कृति और साहित्य की जानकारी के लिए अनिवार्य माना जायगा। कष्टकरशत्रुका लक्षण 'प्राज्ञं कुलीनं शूरं च दक्ष दातारमेव च। कृतज्ञं धृतिमन्तं च कष्टमाहुररिं बुधाः ।।' -(मनुस्मृति, 7/210) भावार्थ:-नित्य इस बात का सतर्क रहकर दृढ़ता के साथ विवेक रखें कि कभी भी बुद्धिमान्, कुलीन, शूरवीर, चतुर, दानदाता, कृतज्ञ व्यक्ति और धैर्यवान् पुरुष को शत्रु न बनाये; क्योंकि जो ऐसे को शत्रु बनायेगा, वह सदा दुःख की पायेगा। सज्जनों को वैभव से मदनहीं होता है “मज्जहि विहवहि ण महाणुभाव।" – (वड्ढमाणचरिउ, 8/7/9-985) अर्थ:-महानुभाव व्यक्ति कभी भी अपने वैभव के कारण मदोन्मत्त नहीं होते हैं। * * * *** प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 00 85

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