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ऋषभदेव का विशुद्ध चरित्र कहा गया; जो कि मनुष्यों के समस्त दुश्चारित्र को दूर करनेवाला तथा उत्कृष्ट महान् सुमंगलों का स्थान (आयतन) है। ____ आदिब्रह्मा तीर्थंकर ऋषभदेव का जन्म इस युग के अंतिम कुलकर राजा नाभिराय की सहधर्मािणी रानी मरुदेवी की पुण्यकुक्षि से हुआ था —यह तथ्य सर्वविदित एवं निर्विवाद है। इसी बात को वैदिक परम्परा के ग्रंथों में भी उनकी भाषा-शैली में स्वीकार किया गया है। देखें—“भगवान् परमर्षिभिः प्रसादतो नाभे: प्रियचिकीर्षया तदवरो धायने मरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुरवततार।"
-(भागवत, 5/3/20) अर्थ:-परम श्रेष्ठ ऋषियों पर प्रसन्न हुये भगवान् ने प्रकट होकर कहा कि “मैं नाभिराय का प्रिय करने की इच्छा से उनके अन्त:पुर में मरुदेवी के गर्भ से धर्म का दर्शन कराने के लिए वातरशन, ऊर्ध्वचारी श्रमण ऋषियों के निर्मल शरीर को धारण करूँगा।"
"नाभेरसौ वृषभ आप्तसुदेवसूनु
र्यो वै चचार समद्रक योगचर्याम् । यत्पारहस्यमृषयः. पदमामनन्ति,
स्वस्थ: प्रशान्तकरा: परित्यक्तसंग: ।।" – (वही, 7/10) अर्थ:-राजा नाभि की पत्नी सुदेवी (मरुदेवी) के गर्भ से आप्तरूप में ऋषभदेव ने जन्म लिया। इस अवतार में समस्त आसक्तियों से रहित होकर, इन्द्रियों एवं मन को शांत करके, अपने स्वरूप में स्थित होकर समदर्शी के रूप में उन्होंने योगचर्या का आचरण किया। इस स्थिति को महर्षियों ने ‘परमहंसावस्था' कहा है।
इसमें प्रयुक्त 'श्रमण' एवं 'आप्त' पद स्पष्टत: जैनपरंपरा की हैं।
इनके नामकरण के कारण का विवेचन भी 'भागवत' में स्पष्टरूप से किया गया है-“तस्य ह वा इत्थं वर्षणा वरीयसा बृहच्छ्लोकेन चौजसा बलेनं श्रिया यशसा वीर्यशौर्याभ्यां च पिता ऋषभ इति चकार ।" – (वही, 5/4/2)
अर्थ:-उनके सुन्दर और सुडौल शरीर को, विपुल कीर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश:, पराक्रम और शौर्य आदि विशिष्ट गुणावलि के अनुरूप पिता ने उनका नाम ऋषभ' रखा। इनके वंश की श्रेष्ठता का यशोगान वहाँ आया है
“अहो ! न वंशो यशसावदात:, प्रेयव्रतो यत्र पुमान् पुराण:। कृतावतार: पुरुष: स आद्य:, चचार धर्मं यदकर्महेतुम् ।।"
-(भागवत, 5/6/14) अर्थ:-अहो ! अत्यंत प्रिय व्रतवाले (नाभिराय) यह (इक्ष्वाकु) वंश बड़ा ही उज्ज्वल एवं सुयशपूर्ण है, जिसमें कृतयुग के आद्य पुराणपुरुष वृषभदेव ने जन्म लेकर योगचर्या रूप
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99