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विन्ध्य का राजा रुद्रभूति उसके सौन्दर्य से आकृष्ट होकर उसके अपहरण- - हेतु अपनी सेना भेज देता है। उस अवसर पर यदि लक्ष्मण अपना क्षात्र- तेज न दिखाते, तो सीता का अपहरण सम्भवतः उसी समय हो जाता ।
व्यक्ति साधारणतया दुर्भाग्य को जीवन का बड़ा भारी अभिशाप मानने लगता है, किन्तु महाकवि स्वयम्भू ने सीता के ऊपर घोर विपत्तियों के समय भी यह उक्ति लागू नहीं होने दी है। लोकदृष्टि में यद्यपि सीता अभागी है, किन्तु उसका यह दुर्भाग्य भी पुरुषार्थ का ही द्योतक है। यह बात सही है कि वह विवाह के बाद किंचित् भी वैवाहिक सुख नहीं भोग सकी। यहाँ तक कि विवाह की प्रथम वर्षगांठ भी नहीं मना सकी, क्योंकि उसके पूर्व ही उसे वनगमन करना पड़ा; फिर भी वह अपने दुर्भाग्य को कोसती नहीं, बल्कि आगत पीड़ाओं एवं विपत्तियों को वह पूर्वजन्मकृत कर्मों का ही फल मानकर उन्हें धैर्यपूर्वक सहती है। वह स्पष्ट कहती है— “एयहाॅ दुक्कियकम्महो फलइँ । ”
जहाँ तक समकालीन समाज में नारी के गुणों का प्रश्न है, उनमें भी सीता को कवि ने सर्वोच्च आसन पर विराजमान किया है। एक प्रसंग में कवि ने उसे नृत्यकला में प्रवीण बतलाया है। जिस समय राम, लक्ष्मण एवं सीता - तीनों मिलकर कुलभूषण, देशभूषण मुनिराज की वन्दना के लिए जाते हैं, तब उनकी तप:पूत साधना से अत्यन्त प्रभावित होकर राम 'सुघोषा' नामक वीणा का वादन करने लगते हैं और उसकी संगत में लक्ष्मण भी शास्त्रीय संगीत प्रारम्भ करते हैं, जिसमें सात स्वर, तीन ग्राम, एवं अन्यान्य स्वरभेद रहते हैं । मूर्च्छना के 21 स्थान और 49 स्वरतानें रहती हैं। उनकी तालों पर सीता नृत्य करती है। अपनी नृत्यक्रिया में सीता नौ रस, आठ भाव, दश दृष्टियों एवं 22 लयों का सुन्दर प्रदर्शन कर सभी को प्रभावित करती है।' महाकवि स्वयम्भू का सीता की कला-प्रवीणता - सम्बन्धी प्रसंग सर्वथा मौलिक है । अन्य श्रमणेतर रामायणों में यह प्रसंग उपलब्ध नहीं होता। इसमें सीता के माध्यम से कवि ने समकालीन संगीत एवं नृत्यकला के विकसितरूप का संक्षिप्त विश्लेषण तो किया ही, साथ ही अपनी संगीतज्ञता का भी परिचय दिया है ।
सीता यद्यपि नवविवाहिता है । प्रसूति - पीड़ा अथवा पारिवारिक या दाम्पत्य-सुख के अनुभव के पूर्व ही उसे वनवास भोगना पड़ता है; फिर भी नारीसुलभ मातृत्व गुण उसमें प्रारम्भ से ही समाहित है । उसका हृदय नवनीत के सदृश कोमल, सरल, निष्पक्ष एवं निष्कपट है। वनवास के समय लक्ष्मण द्वारा भूल से जब चन्द्रलेखा के तपस्यारत पुत्र शम्बूक का वध हो जाता है, तब सीता शोकविह्वल हो उठती है और उसका मातृत्व-गुण जाग उठता है, जो उसके विराट् व्यक्तित्व के सर्वथा अनुकूल ही है। वह उसके वध से उसी प्रकार पीड़ित हो उठती है, जैसे स्वयं उसके पुत्र की ही किसी ने हत्या कर दी हो । सीता एक ओर जहाँ मातृत्व गुणों से भरपूर एवं अत्यन्त सुकोमल हृदया है, वहीं
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99