Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 69
________________ अहिंसा: एक विश्वधर्म –श्रीमती रंजना जैन 'अत्ता चेव अहिंसा' का मूलमंत्र भारतीय संस्कृति का प्राणतत्त्व रहा है। इसके अनुसार आत्मा या प्राणीमात्र का स्वभाव मूलत: अहिंसक है, भले ही सिंह आदि प्राणी संस्कारवश या परिस्थितिवश भोजनादि के लिए हिंसा करते भी हैं; किन्तु वे पूर्णत: हिंसक कभी भी नहीं बन सके हैं। अपने बच्चों पर ममता, दया एवं रक्षा की भावना उनमें अहिंसा के अस्तित्व को प्रमाणित करती है। 'अहिंसा' को प्राय: कमजोरी का प्रतीक समझा जाता है, किंतु वस्तुत: यह दृढ़-मनस्वीजनों एवं वीरों का आभूषण है। यह मानसिक विकारों की निवृत्ति का सर्वोत्तम साधन भी है। क्रोध, बैर, झूठ, चोरी, दुराचार, अनावश्यक संग्रह, छल-प्रपंच आदि की दुष्प्रवृत्तियाँ अहिंसक मानस में कभी पनप नहीं पातीं हैं। इसीलिए महर्षि पतंजलि ने लिखा है कि- “अहिंसा-प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:।" – (योगसूत्र, 2/35) ___ अर्थात् जब जीवन में अहिंसा की भावना प्रतिष्ठित हो जाती है, तो व्यक्ति के मन से वैरभाव का त्याग हो ही जाता है। अहिंसा एक ऐसे विराट वटवृक्ष के समान है, जिसमें सत्य, शील, दया, क्षमा, निरभिमानिता, परोपकार आदि की सद्भावनायें पक्षियों की तरह घोंसले बनाकर निवास करती हैं। विश्व को सभ्यता और संस्कृति की शिक्षा देने के कारण विश्वगुरु' की पदवी प्राप्त भारतवर्ष में अहिंसा को जीवनदर्शन का मेरुदण्ड माना गया है। भारतीय जीवनदर्शन में जो मर्यादा एवं अनुशासन के संस्कार गहरे घर किये हुए हैं, उसका मूलकारण भी अहिंसक जीवनदृष्टि ही है। महर्षि मनु ने हजारों वर्ष पूर्व लिखा था कि- “अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम् ।” – (मनुस्मृति, 2/159) ___ 'अहिंसा' की साधना वास्तव में एक उत्कृष्ट आध्यात्मिक साधना है, इसीलिए भारतीय मनीषियों एवं संतों ने इसे मात्र अन्य जीवों की रक्षा तक ही सीमित नहीं रखा है। उनकी मान्यता है कि यदि आपका मन प्रमाद, असावधानी या आवेश आदि से युक्त होता है, फिर किसी जीव के प्राणों का घात हो या नहीं, हिंसा की उत्पत्ति हो चुकी है। इसप्रकार उन्होंने मात्र हिंसा की परिणति को नहीं, अपितु उसे उत्पत्ति के स्तर पर ही मर्यादित/नियन्त्रित कर उसे आध्यात्मिक ऊँचाइयाँ प्रदान की हैं। उनकी स्पष्ट मानसिकता रही है कि मन से पूर्ण अहिंसक बने बिना व्यक्ति यदि पूजा, यज्ञ आदि या व्रत, उपवास आदि अनुष्ठान कर भी ले; तो भी उसे आत्मदृष्टि नहीं मिल सकती है, आत्मबोध नहीं हो सकता है; क्योंकि उसकी दृष्टि हिंसा की कालिमा से कलुषित है। उपनिषद्कर्ता ऋषि लिखते हैं"तद्यथेहकर्मजितो लोक: क्षीयते, एवमेवामुत्र पुण्यजितो लोक: क्षीयते।" –(छान्दोग्य उपनिषद्, 8/1/6) प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 0067

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