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अर्थ:-जिसप्रकार इस लोक में श्रमरूप पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त (धन-वस्त्रादि) सामग्री नष्ट हो जाने वाली है, उसीप्रकार यज्ञादि द्वारा प्राप्त पुण्य भी नष्ट हो जाने वाले ही हैं। इसी बात को महर्षि बाल्मीकि ने भी स्पष्ट किया है___ "न श्रुतेन न पुण्येन ज्ञायते ज्ञेयमात्मनः।" – (योगवाशिष्ठ, 6/83/14)।
अर्थ:-आत्मा-सम्बन्धी ज्ञातव्य (आत्मज्ञान) को श्रुति (शास्त्र) को पढ़कर या (यज्ञादि से) पुण्यसंचित करके भी नहीं जाना जा सकता है।
वस्तुत: पुण्य की आसक्ति एवं आकर्षण हिंसा के मूलकारण राग-द्वेष की वृत्तियों से कलुषित चित्त है। जो व्यक्ति अपने मन को इस मुक्त पूर्ण अहिंसक बनाकर आत्मज्ञानी बन जाता है, उसे पुण्यकर्मों के प्रति विवशता जैसी भावना नहीं रह जाती है।
नारायण श्रीकृष्ण 'गीता' में लिखते हैं—“आत्मवन्तं हि कर्माणि न बनन्ति धनंजय!”
अर्थात् हे अर्जुन! जो आत्मज्ञानी है, जिनका चित्त विषयवासनाओं एवं राग-द्वेष आदि हिंसामूलक भावनाओं से रहित है, उन्हें कर्मों का बंधन नहीं होता है।
यह आश्वासन मिलने के बाद दृढ़ विश्वास से भरपूर आत्मवेत्ता को भला सामान्यजनोचित पुण्यादि कार्यों का क्या आकर्षण रह जायेगा? महात्मा बुद्ध इसी तथ्य की पुष्टि करते हुये कहते हैं
"अनवस्सुतचित्तस्स अनन्वाहतचेतसो।
पंजपापपहीणस्स नत्थि जागरतो भयं ।।" – (धम्मपद, चित्तवगा, 12) अर्थ:-जिसका हृदय राग से रहित एवं द्वेष से मुक्त हो गया है, उस जागृत पुरुष (आत्मवेत्ता व्यक्ति) को पुण्य और पाप से पृथक् हो जाने का कोई भय नहीं रह जाता है।
अहिंसा की इतनी उदात्त एवं उच्चतम प्रतिष्ठा करनेवाली भारतीय संस्कृति ने मात्र आध्यात्मिक स्तर पर ही अहिंसा की प्रतिष्ठा नहीं की है, अपितु व्यावहारिक जीवन में भी उसकी तार्किक एवं संतुलित अवधारणा को प्रस्तुत किया है। अग्नि में होम/हवन करके पुण्य की आकांक्षा करनेवालों के प्रति वैदिक पुराणों में भी सावधान करते हुए स्पष्टत: अहिंसा का पालन करने का निर्देश दिया गया है
"अहिंसा परमो धर्मस्तदग्निाल्यते कुत:।
हूयमाने यतो वह्नौ सूक्ष्मजीववधो महान् ।।" – (स्कन्दपुराण, 59/37) अर्थ:-'अहिंसा परमधर्म है' ऐसी स्थिति में अग्नि को (धर्मकार्यों में) जलाना कहाँ तक उचित है? क्योंकि अग्नि में आहुति देने आदिरूप क्रियाओं से सूक्ष्मजीवों का अपार वध (भारी हिंसा) होती ही है।
वस्तुत: उत्कृष्ट अहिंसक मानसिकता से ही प्राणीमात्र के प्रति करुणा, दया एवं वात्सल्य की उदारभावना के द्वारा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की उक्ति को चरितार्थ किया जा सकता है। अत: अहिंसा एक अति व्यापक धर्म होने से विश्वधर्म है तथा सम्पूर्ण विश्व इसी की छाया में संरक्षित रह सकता है।
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99