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परम आस्थावान् तथा कर्मफल में अटूट विश्वास रखनेवाले हैं। स्वयम्भू ने अपने जघन्य कोटि के नारी पात्रों को भी अधर में नहीं छोड़ा है। बल्कि उनके लिए भी एक ऐसा वातावरण प्रस्तुत किया है, जिससे वे अपने दुष्कर्मों के प्रति पश्चात्ताप कर भौतिक-सुखों की क्षणिकता का स्वयं ही अनुभव कर सकें और वैराग्योन्मुख होकर शाश्वत-सुखों की प्राप्ति-हेत प्रयत्नशील हो सकें। इस रूप में नारी को पुरुष की दासता से मुक्ति का मार्ग दिखाने, स्वतन्त्ररूप से आत्म-विकसित करने तथा उसके लोकमंगल की कामना करने की कवि स्वयम्भू की यह भावना निस्संदेह ही मौलिक मानी जायगी। इसी कारण नारी-जगत् उन्हें कभी भी विस्मृत नहीं कर सकेगा। सन्दर्भ-सूची 1. पउमचरिउ, 49.12.6 1 2. वही, 27.3.4। 3. वही, 54.2.9। 4. वही, 32.8.9। 5. वही, 36.5.41 6. वही, 41.12 1 7. वही, 7.3-61 8. वही, 49.17.2-31 9. वही, 49.9.9-10। 10. वही, 50.12.2। 11. वही, 50.12.5-11। 12. वही, 81.15.1-21 13. वही, 83.6.1,891 14. वही, 83.8.8-10, 83.91-61 15. वही, 83:7.51 16. वही, 83.11.9-10, 83/12, 13, 14, 15, 161 17. वही, 83.18-20,85.12.21 18. वही, 38.9-12। 19. वही 36.6-71 20. वही, 37.61 21. वही, 37.31 22. वही, 37.2.21 23. वही, 37.2.7-8। 24. वही, 41.4-41 25. वही, 41.8-91 26. वही, 49.16, 49.201 27. वही, 49.14, 151 28. वही, 49.16.1-21 29. वही, 49.16.3-41 30. वही, 41.11, 121 31. वही, 70 1-2 74 2.7-9, 74.41 32. वही, 76.3-41 33. वही, 76 19-201 34. वही, 48.11.6-101
उद्देशो लक्षणं सम्यक्रूपेण परीक्षा व शास्त्रों के अध्ययन में प्रवृत्त होने के लिए प्राचीन आचार्यों ने यह क्रम बतलाया हैं—उद्देश, लक्षणनिर्देश और परीक्षा। सर्वप्रथम विवक्षित विषय का नाममात्र निर्देश करना चाहिए, तदनन्तर उसका स्वरूप-द्योतक लक्षण जानना चाहिए और उसके बाद परीक्षा करनी चाहिए, क्योंकि नाम से लक्षण और लक्षण से परीक्षा करनी चाहिए।
विवक्षित वस्तु के नाम मात्र का कथन करना उद्देश है, उद्दिष्ट को इतर वस्तुओं से पृथक् करनेवाले धर्म का नाम लक्षण है और लक्षण के अनुसार उसकी ऊहापोहपूर्वक समीक्षा करना परीक्षा है। जैसे—'गौ' —यह नाम गौविषयक परामर्श में उद्देश है; 'गलकम्बलवन्ती गौः' (जिसके गले में कंबल है, वह गौ है)—यह गौ का लक्षण है। गौ के गले में कम्बल है या नहीं यह परीक्षण परीक्षा है।
इसप्रकार उद्देश, लक्षणनिर्देश और परीक्षा -इन त्रिविध के पर्यालोचन से वस्तु के परिज्ञान में प्रामाणिकता आती है।
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99