Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 63
________________ देती है। इस प्रसंग में ऐसा प्रतीत होता है, जैसे स्वयंभू की सीता युगों-युगों से मानव द्वारा प्रताड़ित होने वाली समस्त महिला-समाज की प्रतिनिधि होकर सारे पुरुष समाज को यह घोषणा कर रही हो कि 'नारी पुरुष की दासी नहीं, अब वह पुरुष-प्रदत्त यातनाओं एवं अन्याय-अत्याचारों को अधिक समय तक सहन नहीं कर सकती। उसे उनके प्रतिरोध का पूर्ण अधिकार है।' सीता के चरित्र में यह प्रसंग एक दूषण के रूप में प्रयुक्त माना जा सकता है; क्योंकि जो सती शीलवती हो, अपने प्रियतम के विछोह में जिसने जीवन के सुखों की कल्पना का भी परित्याग कर दिया हो; वही चिरकाल के बाद अपने प्रियतम से प्रथम मिलन की बेला में इतना आक्रोश दिखाए-यह उसके व्यक्तित्व के सर्वथा प्रतिकूल प्रतीत होता है; किन्तु इस प्रसंग में ऐसा प्रतीत होता है कि कवि स्वयम्भू ने समकालीन महिला समाज की स्थिति पर प्रकाश डालने का अवसर निकाला है। और सीता के माध्यम से उन्होंने उसका स्पष्ट विश्लेषण किया है। निर्वासित सीता जब लौटकर अयोध्या वापस आती है, तब वह अपने शीलभंग की आशंका का निराकरण किए बिना नगर-प्रवेश नहीं करती। वह नगर के बाहर उसी उपवन में बैठ जाती है, जहाँ से राम ने उसे निर्वासित किया था। वह जीवन की सबसे कठोर परीक्षा—अग्निपरीक्षा देकर अपने प्रियतम राम के मन की ही नहीं, अपितु समस्त जनपद के लोगों की शीलभंग-सम्बन्धी आशंका को भी निर्मूलकर देना चाहती है। अत: वह 'पंच नमस्कार मन्त्र' का स्मरण करती हुई प्रज्वलित अग्निचिता में प्रवेश कर जाती है। यह उसके शील का ही प्रभाव है कि वह चिताग्नि शीतल-जल में परिवर्तित हो जाती है। और उससे सभी उपस्थित नर-नारी उस दृश्य से प्रभावित होकर उसके चरित्र के निष्कलंक होने की घोषणा करते हैं।" अग्निपरीक्षा के बाद राम सोचते हैं कि अब उनके एवं सीता के पूर्वकृत दुष्कर्मों का शमन हो गया है और सीता के साथ उनका शान्ति एवं समता का जीवन व्यतीत होगा; किन्तु अब दूसरी ही स्थिति उत्पन्न हो जाती है। सीता भौतिक-सुखों की क्षणिकता एवं सांसारिक मायाजाल की निस्सारता का अनुभव कर उनसे निर्लिप्त हो जाती है। उसके सम्मुख संसार की अनित्यता साकार हो चुकी थी। अरि-मित्र, महल-मसान एवं कंचन-काँच के प्रति उसके मन में कोई भेदभाव नहीं रह जाता है। शीघ्र ही वह सांसारिक-सुखों से विरत होकर 'आर्यिकाव्रत' स्वीकार कर लेती है और घोर तपस्या में लीन होकर स्वतन्त्र आत्म-विकास की प्रक्रिया में लीन हो जाती है।" __ इसप्रकार स्वयम्भू की सीता कष्टसहिष्णु, कर्मसिद्धान्त में विश्वास रखनेवाली, शीलरक्षा में कठोर, अत्यन्त निर्भीक एवं साहसी, लोककलाओं में प्रवीण, कोमल-हृदया, स्वाभिमानिनी तथा संसार की क्षणिकता देखकर वैराग्य धारणकर स्वतन्त्र आत्मविकास प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 0061

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