Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 53
________________ “अमिय-सरिस उजवणजलु, नयरु महावण सग्गु । तहिं जिणभवण वसंत इण, विरइउ रासु समग्गु ।।" 'ब्रज जनपद' के 9 वन और 24 उपवन प्रसिद्ध है:- जैसे वृन्दावन, अग्रवन, जम्बूवन, महावन, मधुवन, तालवन, कामवन, वकवन, भाण्डीरवन आदि; जिनमें से महावन (पुराना गोकुल) एक महान् प्रसिद्ध नगर की भाँति विख्यात रहा होगा और बड़ा समृद्ध एवं जिनालयों से युक्त रहा होगा। 'चूनडीरासक' में मुनि विनयचंद्र ने 'तिहुवणगिरि' (त्रिभुवनगिरि-तहनगढ़) का उल्लेख किया है, जहाँ के जिनमंदिर में रहकर इसकी रचना की थी। यहाँ के शासक श्री अजयपाल नरेन्द्र थे। इसी तरह ‘णिज्झरपंचमीकहारासक' में भी 'तिहुवणगिरि' का उल्लेख किया है। यथा "तिहुवणगिरि पुरु जगि विक्खायउं, सग्गखण्डु णं घरियलि आयउं। तहिं णिवसंत्थं मुणिवरिणा, अजयणरिंदह रायबिहारी।। वेगि विरइय चूनडियं, सोहहो मुणिवर जं सुविसारा। पणविय वंदिवि पंचगुरु० ।।" 'णिज्झर-पंचमीकहा-रासक' का छंद “तिहुवणगिरि तलहटी इहु रासउ रयउ, माथुर संघह मुणिवर विवायचंदि कहिउ।” मुनि विनयचन्द्र के काल-निर्णय में हमें उपर्युक्त उद्धरणों में दो ही आधार मुख्यतया मिलते हैं। पहला तो मुनि विनयचंद की गुरु-परंपरा के उदयचंद मुनि का महावन नगर जिसके जिनालय में रहकर उन्होंने ‘णरग-उतारी रास' की रचना की थी और दूसरा आधार तिवणगिरि के राजा अजयपाल नरेन्द्र के शासनकाल में चूनडीरासक' की रचना की थी। महावन और तिहुवनगिरि —ये दोनों ही मथुरा, बयाना (श्रीपथ= पथयमपुरी) और भरतपुर राज्य के समीपस्थ स्थानों में से हैं। चूँकि पहला आधार महावन नगर का हमें कोई और ऐतिहासिक प्रमाण की उपलब्धि नहीं होती है; अत: हम दूसरा आधार तिहुवन गिरि और अजयपाल नरेन्द्र को ही प्रामाणिक ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में आधार मानकर मुनि विनयचन्द्र के समय का निर्णय करेंगे। 'तिहुवणगिरि' (त्रिभुवनगिरि-तहनगढ़) महावन से दक्षिण पश्चिम में 100 कि०मी० दूर राजस्थान के पर्व भरतपुर राज्य में था, जिसे त्रिभुवनपाल नामक यदुवंशी राजा ने बसाया था। आज का 'बयाना' नगर जो यादवों की राजधानी थी, इसी नगर के आसपास था। बाद में 'त्रिभुवनगिरि' ही 'तहनगढ़' नाम से विख्यात हुआ, जो तहनपाल राजा के नाम पर विख्यात हुआ। मुनि विनयचंद का निवास तथा विहार इन्हीं मथुरा-भरतपुर-बयाना राज्यों के आसपास ही रहा। 'तिहुवणगिरि' के यदुवंशी राजा अजयपाल की प्रशस्ति सं० 1207 (1150 A.D.) की महावन के पास से प्राप्त हुई है (दखो Epigraphica Vol. प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 00 51

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