Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 51
________________ अपभ्रंश की सरस सशक्त जैन-कृति ‘चूनडी रासक' ___ -कुन्दन लाल जैन यह आलेख नवीन प्राकृत-शोध की प्रवृत्ति की प्रेरणार्थ यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। इसकी हस्तलिखित प्रेसकॉपी जैसी लेखक ने भेजी, उसे ही यथासंभव संपादित कर यहाँ दिया जा रहा है। 'चूनडीरासक' की प्रति भी मूलप्रति या उसकी छायाप्रति नहीं उपलब्ध होने से लेखकीय प्रेसकॉपी के आधार पर यहाँ दी जा रही है। -सम्पादक 'चूनडीरासक' अपभ्रंशभाषा की एक सरस एवं सशक्त कृति है, जो अब तक विद्वज्जनों की दृष्टि से अगोचर रही है। इसके रचयिता मुनिश्री विनयचन्द्र जी 13वीं सदी के पूर्वार्द्ध के एक सशक्त कवि माने जाते हैं। यद्यपि इनकी किसी भी कृति में रचनाकाल का उल्लेख न होने से सुनिश्चित-तिथि का निर्धारण असंभव है; परन्तु अपनी गुरु-परम्परा तथा रचनास्थल का उल्लेख होने से इनके काल-निर्णय में सहायता मिलती है। मुनिश्री विनयचन्द्र जी की पाँच कृतियाँ उपलब्ध हैं; परन्तु अभी तक किसी भी कृति का प्रकाशन नहीं हुआ है; अत: यहाँ हम उनकी एक छोटी सी कृति 'चूनडीरासक' अविकलरूप से प्रस्तुत कर रहे हैं। उनकी कृतियाँ हैं:- (1) चूनडीरासक, (2) णिज्झरपंचमीकहा, (3) णरग-उतारीरासक, (4) कल्याणरासक और (5) णिदुक्खसत्तमीकहा। 'चूनडीरासक' 32 छंदों की एक छोटी सी सरस कृति है, जो हमें अभी डेढ़ दो वर्ष पूर्व एक गुटके से प्राप्त हुई है। इसके साथ में कल्याणरासक' भी है। जिस गुटके से यह कृतियाँ मिली हैं, उस गुटके के पत्रकों की कुल संख्या 464 है; प्रत्येक पत्रक की लम्बाई 25 से०मी० तथा चौड़ाई 16 से०मी० है। प्रत्येक पत्रक में 14-14 पंक्तियाँ हैं तथा प्रत्येक पंक्ति में 30-32 अक्षर हैं। साथ में कृति के अगल-बगल, उपर नीचे हासियों में स्वोपज्ञ टीका बारीक अक्षरों में टिप्पण की भाँति अंकित है। गुटके की लिपि सुवाच्य और सुन्दर है, इसमें काली स्याही का ही प्रयोग किया गया है। विराम-चिह्न के लिए हर पंक्ति के ऊपर पतली रेखा (पूर्ण विराम की भांति) अंकित है, जिससे प्रतिलिपि शुद्धतापूर्वक की जा सकती है; परंतु यह खेद की बात है कि आदि एवं अंत के पत्रक न होने से गुटके का लिपिकाल, लिपिकर्ता, लिपिस्थल तथा अन्य ऐतिहासिक उपयोग की सामग्री से हम वंचित हो जाते हैं। 'चूनडीरासक' की स्वोपज्ञ टीका में प्राकृत-गाथाओं के उद्धरण भी विद्यमान हैं। इस स्वोपज्ञ टीका में 18 लिपियों के नामोल्लेख हैं, जो भाषाविज्ञान के विद्यार्थियों के अध्ययन-हेतु अतिउपयोगी हैं, अत: 'कुवलयमालाकहा' (7-8 वीं सदी) में उल्लिखित देशी-भाषाओं के साथ तालमेल बिठाकर एक तालिका-रूप में नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं। प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 00 49

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