Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 49
________________ सुदंसण-णिव्वाण-गमणं। वड्ढमाण-जिण-णिव्वाण-गमणं। जंबूसामि-वेरग-वण्णणो तहेव पाणिग्गहण-करणो। सोडस-कहंतर-वण्णणो विज्जुचरण-पडिवोहणं। सम्मण्णाण-कहा। छहकाल-णिद्देस-वण्णणं। 48. 28 44 रस-संयोजन : रस-योजना की दृष्टि से 'तिसट्ठि-महापुराण' में प्रसंगवश अन्य रसों के साथ शृंगार, वीर एवं शान्तरस आदि का भी सुन्दर परिपाक हुआ है। गणिकाओं के वर्णन-सन्दर्भ में कवि ने शृंगार, हाव-भाव एवं चेष्टाओं का सजीव वर्णन किया है। संयोग-शृंगार (46/34) के विभाव-अनुभाव भी उपस्थित किये गए हैं। कवि ने संयोग के पूर्व उत्पन्न होने वाले मानसिक-द्वन्द्वों का स्पष्ट अंकन किया है। मनोज्ञ नायिका के दर्शन के पश्चात् नायक के मन में उत्पन्न होने वाली विभिन्न मनोभावनायें मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की दृष्टि से जितनी महत्वपूर्ण हैं, उतनी ही सरसता की दृष्टि से भी। शृंगार का पोषक वीररस है। प्रस्तुत तिसट्ठि-महापुराण' में वीर-रस के सन्दर्भ अनेक स्थलों पर आये हैं। लव-कुश और राम-लक्ष्मण के युद्ध में कवि ने दर्पोक्तियों के साथ वीर-रस का नियोजन किया है। इस सन्दर्भ में वीर-रस की तुलना हम ‘पृथ्वीराजरासो' के 'संयोगिता-स्वयंवर' से कर सकते हैं। दोनों ही संदर्भो में वीरों की भावनाओं का चित्रण समानरूप में हुआ है। लव और कुश की वीरता और रणनीति वीरगाथा-कालीन रणनीति के समकक्ष है। जब लव, राम एवं लक्ष्मण को युद्ध-भूमि में आवेष्टित कर लेते हैं, तब दोनों ओर के ही पराक्रमी वीर योद्धा अपनी-अपनी वीरता का प्रदर्शन करते हैं; परन्तु लव और कुश की वीरता के समक्ष राम-लक्ष्मण को हतप्रभ हो जाना पड़ता है। परिस्थिति की विकटता को समझकर सीता रणक्षेत्र में उपस्थित होती है और वीरता का दृश्य तत्काल ही शान्ति में परिणत हो जाता है। इस नाटकीय पट-परिवर्तन के साथ वातावरण भी एक नया रूप ग्रहण कर लेता है और अग्नि-परीक्षा के बाद सीता चिरन्तन-शान्ति के हेतु वन की ओर चली जाती है। इसप्रकार कवि रइधू ने वीर-रस एवं शान्तरस की योजना एक ही सन्दर्भ में नियोजित कर काव्य-चमत्कार का सृजन किया है। भाषा: ___ तिसट्ठि महापुराण' का काव्य, इतिहास एवं संस्कृति की दृष्टि से जितना महत्त्व है, उससे भी कहीं अधिक महत्त्व भाषा की दृष्टि से है। प्रस्तुत ग्रन्थ में 15-16वीं सदी के मध्य में प्रयुक्त होने वाली जनपदीय भाषाओं के अनेक शब्द उपलब्ध होते हैं, उनमें से कुछ प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 00 47

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