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“सत्पात्रदानेषु विभूति यस्य सच्छास्त्र- - अर्थेषु मति-प्रसन्नः ।
जिनाद्रि - पद्मेषु नतांगवृत्तिः स कुन्थुदासो जयतात्सदात्र ।। – (सन्धि 11 ) य: सर्वसत्त्वेषु दयानुभावो जैन - श्रुतानां श्रवणानुरागः ।
परोपकारेषु रतो मनीषी स कुन्थुदासो जयतात्सदात्र ।। ” – ( सन्धि 15 ) 'तिसट्ठि-महापुराण' की अन्त्य - प्रशस्ति में कुन्थुदास की 10 पीढ़ियों का परिचय भी दिया गया है। तदनुसार पितामह रतन साहू अच्छे पण्डित थे । कवि ने उन्हें मित्तल-गोत्रीय अग्रवाल कहा है । (50/43)
इधू
ने अपनी 'जिमंधरचरिउ' की आद्य - प्रशस्ति में लिखा है कि “साहू कुन्थुदास ने अपने (1/4) बाएँ कान में स्वर्णकुण्डल न पहिनकर 'कौमुदीकथाप्रबन्ध' रूपी कुण्डल तथा माथे पर 'महापुराणरूपी मुकुट' धारण किया था और जब दायाँ कान रिक्त रह गया तब उसमें 'जिमंधरचरिउ' रूपी कुण्डल धारण कर अपना जीवन कृतार्थ किया था ।" इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि कुन्थुदास ने रइधू को प्रेरित कर उनसे 'कोमुइकहा- पवंधु', 'तिसट्ठि०-महापुराण' एवं 'जिमंधरचरिउ' – इन तीन रचनाओं का प्रणयन कराया था। इनमें से अन्तिम दो रचनायें तो उपलब्ध हो गई हैं; किन्तु प्रथम रचना 'कोमुइकहापबंधु' की खोज जारी है।
भट्टारक
पूर्वकालीन एवं समकालीन भट्टारकों के उल्लेख : के कुलगुरु रूप में रइधू ने कुन्थुदास का परिचय देते हुए उनके कीर्ति मुन का स्मरण किया है तथा उन्हें 'गच्छ का नायक' कहा है। भट्टारक हेमकीर्ति के साथ कवि ने उनके पूर्ववर्ती भट्टारक विजयसेन, नयसेन, अश्वसेन, अनन्तकीर्त्ति एवं खेमकीर्त्ति के उल्लेख भी किये हैं । कवि ने इन सभी को माथुरसंघी बताया है । 'प्रवचनसार' की एक प्रतिलिपिकार-प्रशस्ति में उक्त भट्टारकों की परम्परा काष्ठासंघ, माथुरगच्छ एवं पुष्करगण शाखा के अन्तर्गत उपलब्ध है । उसमें उक्त हेमकीर्ति भट्टारक का समय वि०सं० 1469 दिया गया है। यथा:— “विक्रमादित्य राज्येऽस्मिंश्चतुर्दश-परे शते ।
नवषष्ट्या युते किं नु गोपाद्रौ देवपत्तने ।। ”
— (प्रवचनसार-प्रशस्ति श्लोक, 3. बम्बई, 1935, दे० भट्टारक-सम्प्रदाय, पृ० 226) भट्टारक हेमकीर्ति के पूर्व के भट्टारकों के समय को ज्ञात करने के लिए हमारे पास वर्तमान में साधन-सामग्री का अभाव है, किन्तु यह निश्चित है कि वे संवत् 1400 से वि०सं० 1469 के मध्य हुए हैं ।
कविगुरु-पाल्हबम्म:
महाकवि ने 'तिसट्ठि० महापुराण' में अपने गुरु भट्टारक पाल्हब्रह्म का उल्लेख किया है और कहा है कि "प्रस्तुत रचना पाल्हब्रह्म के शिष्य मैंने (अर्थात् रइधू ने ) की है।” कवि ने उक्त पाल्हब्रह्म (50/44 / 16 ) का उल्लेख अपनी 'सम्मइजिणचरिउ ' ( 10/28/9-10)
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99
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