Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 43
________________ मूलपृष्ठों में 'घत्ता' शब्द, घत्तों की संख्या एवं पुष्पिकायें लाल-स्याही में अंकित हैं तथा मूल-कथा-भाग गहरी काली स्याही में है। यह कहना कठिन है कि उक्त पृष्ठ मूलपृष्ठों के अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण हो जाने के कारण उन्हीं की प्रतिलिपि है, अथवा उनके नष्ट हो जाने पर किसी अन्य प्रति की प्रतिलिपि? मूल प्राचीन-पत्रों के बीचोंबीच सर्वत्र छोटा चौकोर स्थान रिक्त छोड़ा गया है। उसके बीच में एक बड़ा शून्य लाल-स्याही से भरा गया है। इसीप्रकार हाशिए भी समानान्तर काली रेखाओं के बीच लाल-स्याही से भरे गए हैं। ___ प्रस्तुत 'तिसट्ठि-महापुराण' की भाषा अपभ्रंश है। प्रत्येक सन्धि' के अन्त में आशीर्वचन के रूप में विविध छन्दवाले संस्कृत पद्य भी अंकित हैं। उसमें कुल 50 सन्धियाँ एवं 1357 कड़वक हैं, किन्तु कवि ने स्वयं ही इसका विस्तार 1500 प्रमाण बतलाया है। प्रतीत होता है कि इसमें उसने प्रत्येक सन्धि' के अन्त में लिखित आशीर्वादात्मक संस्कृत श्लोक, पुष्पिकायें तथा प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ में लिखित विशेष घत्तों को लेकर ही उनकी संख्या 1500 बतलाई है। मूल-प्रेरक एवं आश्रयदाता : उक्त 'तिसट्ठि० महापुराण' के प्रणयन के मूल-प्रेरक एवं आश्रयदाता साहू कुन्थुदास हैं। कवि ने आद्य-प्रशस्ति में लिखा है कि "जब मैं गोपाचल-दुर्ग में (1/2/5) निवास कर रहा था, उसी समय पण्डित महणसिंह तथा उनकी पत्नी मौल्ली के सुपुत्र कुन्थुदास ने आकर मुझसे निवेदन किया कि मैं उन्हें स्वाध्याय-हेतु एक तसट्ठि महापुराण' की रचना कर दूँ।” (1/2/5-12) रइधू ने उक्त विषयक गम्भीरता का अनुभव कर पहले तो उसके प्रणयन में असमर्थता व्यक्त की; किन्तु साहू कुन्थुदास के बार-बार प्रार्थना करने पर कवि ने उसका प्रणयन करना स्वीकार कर लिया (द्र० 1/4/7)। ये आश्रयदाता कुन्थुदास वही हैं, जिन्होंने महाकवि रइधू के लिए पूर्व में भी 'जिमंधरचरिउ' एवं 'कोमुईकहपबंधु' नाम की रचनाओं के प्रणयन में प्रेरणा देकर (द्र० 1/4) आश्रयदान दिया था। 'तिसट्ठि० महापुराण' की प्रशस्ति से विदित होता है कि वे ऐसे श्रीमन्त थे, जिन्होंने राजकीय विविध सम्मादित पदों पर रहकर तथा अपने पुरुषार्थ से लक्षपति बनकर भी कभी अहंकार नहीं किया। वे निरन्तर ही साहित्य एवं साहित्यकारों का सम्मान करते रहे। उनके पास अटूट ऐश्वर्य-लक्ष्मी तो थी; किन्तु इस बात का उन्हें बड़ा दु:ख था कि उनके पास विद्या-लक्ष्मी नहीं। अत: उन्होंने इसके लिए महाकवि रइधू से याचना की (50/44)। रइधू ने उन्हें 'मित्र' कहकर भी सम्बोधित किया है। इससे प्रतीत होता है कि वे सम-वय (1/2/13) वाले रहे होंगे। रइधू ने कुन्थुदास को श्रीमान्, धीमान्, दयालु, साहित्य-रसिक आदि के रूप में स्मरण किया है। यथा प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 00 41

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