Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 41
________________ उत्तर मध्यकालीन अपभ्रंश का एक अद्यावधि अप्रकाशित दुर्लभ ग्रंथ तिसट्ठि-महापुराण-पुरिस-आयार-गुणालंकारु -प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन मनुष्यायु-कर्म के उदय से जो प्राणी मनुष्य-पर्याय धारण करता है तथा भौतिक-जगत में अपने शौर्य, वीर्य एवं पराक्रमों का प्रदर्शन करता हुआ काल-क्रम से कषायों, वासनाओं एवं विकारों का विजेता बनकर आत्म-विकास के क्षेत्र में वर्धमान रहता है; उस तेजस्वी, मनस्वी एवं पुण्यशाली पुरुष को महापुरुषों की कोटि में गिना जाता है। श्रमण-परम्परा में ऐसे महापुरुष को ‘शलाका महापुरुष' की संज्ञा प्रदान कर उनकी कुल संख्या 63 मानी गई है, जिनमें 24 तीर्थकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव एवं 9 प्रतिवासुदेव सम्मिलित हैं। उक्त 63 महापुरुषों में से किसी एक अथवा एकाधिक के चरित को आधार मानकर संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश कवियों ने समय-समय पर अनेक रससिद्ध काव्य-ग्रन्थों की रचनाएँ की हैं। किन्तु उक्त सभी ‘शलाका-महापुरुषों' के चरित का एक ही साथ विस्तारपूर्वक ग्रथन करने वाले तीन ग्रंथ अद्यावधि उपलब्ध एवं प्रकाशित हैं। आचार्य जिनसेनकृत महापुराण' अथवा 'त्रिषष्ठिशलाकामहापुरुषचरित', महाकवि पुष्पदन्तकृत महापुराणु' अथवा तिसट्ठिमहापुराणपुरिसगुणालंकारु' तथा आचार्य हेमचन्द्रकृत त्रिषष्ठिशलाका-महापुरुषचरित्र' । इनमें से प्रथम एवं अन्तिम ग्रंथ संस्कृत-भाषा-निबद्ध हैं तथा दूसरा ग्रंथ अपभ्रंश-भाषा निबद्ध है। 'त्रेसठ शलाका महापुरुष' - सम्बन्धी एक अन्य अपभ्रंश-रचना भी कुछ वर्ष पूर्व इन पंक्तियों के लेखक को उपलब्ध हुई है, जिसका नाम “तिसट्टिमहापुराणपुरिसआयारगुणालंकारु” (अपरनाम ‘महापुराण') है। इस रचना के प्रणेता महाकवि रइधू है। सन् 1956 में हमने जब रइधू-साहित्य पर अपना शोधकार्य प्रारम्भ किया था, उसी निमित्त से कुछ प्रमुख प्राच्य शास्त्र-भण्डारों से रइधू की पाण्डुलिपियों की खोजकर उनकी प्रशस्तियों में उक्त 'तिसट्ठि' (महापुराण) का जब नामोल्लेख देखा, तभी से उसकी खोज में भी वह लगभग 15 वर्षों तक व्यग्रतापूर्वक प्रयत्नशील बना रहा। संयोग से उसकी एक प्रति गुरुवर्य श्रद्धेय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री की कृपा से कुछ समय के लिए बाराबंकी (उ०प्र०) के एक जैन-शास्त्र-भण्डार से प्राप्त हुई थी। यह रचना अत्यन्त विशाल है। अत: उसके सम्पूर्ण अध्ययन के लिए दीर्घावधि अपेक्षित है, किन्तु अपने कुछ गुरुजनों एवं मित्रों के आग्रह से उसका संक्षिप्त सामान्य-परिचय तैयार कर साहित्यरसिक पाठकों की जानकारी के लिए यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 00 39

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