Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 40
________________ आइरिय सिरि विज्जानंद महामुणि थवं ददु पुज्जो विज्जाणंदो जो जुंजदि णियं उवओगं । सदा । । 11 जिणसासण-वड्ढावण-सुकज्जम्मि अर्थ:—जिनशासन की वृद्धिरूपी सुकार्य में जिनका उपयोग सदा लगा हुआ है, ऐसे पूज्य आचार्यश्री विद्यानन्द जी सदा प्रसन्न ( हम पर कृपालु ) रहे । ददु पुज्जो विज्जाणंदो अप्प - पर-हियासतो जो । -डॉ० एन० सुरेश कुमार जो - एदि सया चित्तं धम्म - पहावणा - णिमित्तं णं । । 2 । । अर्थ:—जो धर्म की प्रभावना के निमित्त अपने मन को सदा लगाये रहते हैं, ऐसे अपने व पर के हितान्वेषी पूज्य आचार्यश्री विद्यानंद जी मुझ पर प्रसन्न (कृपालु ) हों । सहिदूण कडुय सीयल हिमं तेणं कमिदो उण्णद - हिमसेलं 'खु । दंसिदो कइलासं जत्थ पढम - तित्थयरो पत्तो णं णिव्वाणं ।। 3 ।। अर्थ:—जिस कैलाशपर्वत से आदिनाथ स्वामी मोक्ष गये, उसी उन्नत हिमालय पर भीषण शीतबाधा सहकर भी जिन्होंने पदयात्रा की, (ऐसे वे विद्यानंद जी सदा जयवन्त हों)। बालाणं बुहयणाणं पि सम्मं पडिबोहण - णिमित्तं । एसो णिग्गंथराया सग्गंथो सिद्धंत - गंथेहिं ।। 4 । । के अर्थ:-अज्ञानी एवं ज्ञानिजनों - सभी के प्रतिबोधनार्थ जिन निर्ग्रथराज ने सिद्धांतग्रंथों अनुसार ग्रंथ - रचना की ( व आचार्यश्री विद्यानंद जी सदा जयवंत हों ) । बालो व होदु वुड्ढो ताणं भासेदि पिय- मिदु - महुर- वयणेहिं । - कोण वंददि गुरुरायं सया जीव-हिद- णिरदं ।। 5 ।। अर्थ:-बालक हो या वृद्ध - सभी के साथ जो प्रिय, मृदुतर एवं मधुर वचनों से बोलते हैं, –ऐसे प्राणीमात्र के हित में निरत गुरुराज ( आचार्यश्री विद्यानंद जी) की कौन वंदना नहीं करता है? (अर्थात् सभी करते हैं ।) 38 उपासक-धर्म ‘सम्यक्त्वपूर्वकमुपासकधर्ममित्थम्, सल्लेखनान्तमभिधाय गणेश्वरेऽत्र । जोषं स्थिते विकास सभा समस्त, भानाविवादेयगिरिं नलिनीतिभद्रम् ।।' अर्थः–इसप्रकार सम्यग्दर्शनपूर्वक उपासकधर्म का सल्लेखना-पर्यन्त निरूपण करने के पश्चात् गणधरदेव के मौन हो जाने पर सम्पूर्ण समवरण- सभा वैसे ही प्रसन्न हो उठी, जैसे कि सूर्योदय होने पर कमलिनी खिल उठती है । प्राकृतविद्या + जुलाई-सितम्बर 199

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