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“सर्वेभ्यो यद्वतं मूलं स्वाध्याय:' परमं तप: । यत: सर्वव्रतानां हि स्वाध्यायो मूलमादित: ।। स्वाध्यायाज्जायते ज्ञानतं ज्ञानात्तत्वार्थ संग्रहः । तत्वार्थसंग्रहादेव श्रद्धानं तत्त्वगोचरम् ।। तन्मध्यैकगतं पूतं तदाराधनलक्षणम्। चारित्रं जायते तस्मिंस्त्रयीमूलमयं मतम् ।।"
–(सिद्धान्तसार, 11/20-22) समस्त व्रतों का मूलव्रत स्वाध्याय' है। यह परम तप है। सम्पूर्ण व्रतों का यह आदि मूल है। (किस प्रकार है, इसका वर्णन करते हैं)___ स्वाध्याय से ज्ञान प्रकट होता है, ज्ञान से जीवादिक तत्त्वार्थों का संग्रहण होता है और उस तत्त्वार्थ-परिज्ञान से तत्त्वविषयक श्रद्धान उत्पन्न होता है। रत्नत्रय के मध्य में सम्यग्ज्ञान की स्थिति है। (वह सम्यग्ज्ञान स्वाध्याय परिणाम है) ज्ञानाराधना का लक्षण स्वाध्याय ही है। सम्यग्ज्ञान से ही सम्यक्चारित्र उत्पन्न होता है। इसप्रकार यह स्वाध्याय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का मूल है।
"प्रशस्ताध्यवसायस्य स्वाध्यायो वृद्धिकारणम् । तेनेह प्राणिनां निन्धं संचितं कर्म नश्यति ।। संवेगो जायते यस्मान् मोहध्वान्त-विनाशकः । मोहादपगतानां हि क्व संसारः क्व तत्फलम् ।। स्वाध्यायेन समं किंचिन्न कर्मक्षपणक्षमम् । यस्य संयोगमात्रेण नरो मुच्येत कर्मणा ।। बहीभिर्भव कोटीभिव्रतात् यत्कर्म नश्यति। प्राणिनस्तत्क्षणादेव स्वाध्यायात् कथितं बुधैः ।।"
-(सिद्धान्तसार, 22/23-26) अर्थ:-स्वाध्याय प्रशस्त-परिणामों की वृद्धि में कारण है। उन प्रशस्त-परिणामों से प्राणियों का निन्दनीय संचित कर्म क्षय को प्राप्त हो जाता है। स्वाध्याय से मोहान्धकार का विनाशक संवेग' (संसारभय) उत्पन्न होता है और जहाँ मोह का क्षय हो गया, वहाँ संसार कहाँ और उसका फल (भवगति) कहाँ? स्वाध्याय के समान कर्मनिर्जरा के लिए अन्य कोई साधन नहीं है, जिसके सम्पर्कमात्र से मनुष्य कर्म से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। अनेक जन्मों में किये गये व्रत से जिन कर्मों का प्रणाश होता है, उसके विषय में विद्वानों ने कहा है कि स्वाध्याय से तत्क्षण ही कर्मक्षय हो जाता है।
"पदार्थांस्थूल सूक्ष्मांश्च यन्न जानाति मानवः। तज्ज्ञानावृत्ति माहात्म्यं नात्मभावो हि तादृशः ।।
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99