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तथा 'बलहद्दचरिउ' (1/4/7-8) में भी किया है। 'सम्मइजिणचरिउ' में कवि ने उन्हें काष्ठासंघ, माथुरगच्छ एवं पुष्करगण के प्रमुख भट्टारक यश:कीर्ति के तीन शिष्यों में से प्रधानशिष्य कहा है तथा बलहद्दचरिउ' में उन्हें अपने गुरु के रूप में स्मरण किया है। रइधू ने उन्हें 'आयरिय' (आचार्य) विशेषण से सम्बोधित किया है, किन्तु उनका विशेष परिचय नहीं दिया है। अपभ्रंश-साहित्य में रइधू को छोड़कर इनका उल्लेख अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिल सका है। पाल्हब्रह्म के गुरु भट्टारक यश:कीर्ति का समय वि०सं० 1486 से 1510 निश्चित है। अत: पाल्हब्रह्म का समय भी उसी से निश्चित हो जाता है। प्रस्तुत रचना के संशोधक एवं सहायक श्री बोहित्य: ___ 'तिसट्ठि महापुराण' की अन्त्य प्रशस्ति (50/41/3) में महाकवि रइधू ने लिखा है कि-"हेमकीर्ति मुनि के शिष्य श्री बोहित्थ ने प्रस्तुत महापुराणरूपी श्रेष्ठ स्वर्ण को अपनी बुद्धिरूपी कसौटी पर निष्कपट-भाव से कसकर उसे ऐसे चित्रलेखों से सुशोभित किया है कि जिसमें उस ग्रन्थ ने गुणीजनों के भी चित्त को मोह लिया।” यथा:
"हेमकिर्ति मुणिणाहह सीसें जो बृहविंदहिँ पणविउ सीसें। बंभव्वय धारएण गरीसें संसारोवहि णिवडण भीसें ।। सिरि बोहित्थ णाम सु पहाणे गयतदेण विज्ज-गुण-ठाणे। तेण महापुराण वर-कंचणु-मइ-कसवट्टिहि कसिवि अवंचणु।। चित्तलेह-लाएप्पिणु सोहिउ गुणियण-विंदु सयल-खणि-मोहिउ। चहुविह-भेय-सुवण्णहि घडियउ अच्छ-पसच्छ-रयण-गण-जडियउ।। कुंथयास-साहुहु सिर-सेहरु हुउ परिपुण्णु सवण-मण-सुहयरु।"
–(50/40/1-7) प्रस्तुत 'तिसट्ठि-महापुराण' क्या सचित्र था?
उक्त कथन से यह स्पष्ट है कि श्री बोहित्थ ऐसे धुरन्धर विद्वान् एवं कवि थे कि जिन्होंने उक्त महापुराण' की भाषा-शैली को सजाया-सँवारा था। इतना ही नहीं, कवि ने संकेत के अनुसार श्री बोहित्थ ने उसके रत्नजटित स्वर्णिम चित्र भी तैयार किये थे, जिसके सौन्दर्य ने गणी-जनों के चित्त को भी मोह लिया था। इससे यह प्रतीत होता है कि उक्त तिसट्ठि-महापुराण' की कोई सचित्र प्रति भी तैयार की गई थी, जो इस समय लुप्त-विलुप्त है अथवा कहीं छिपी पड़ी है। इस विषय में विशेष शोध-खोज की आवश्यकता है। ___कवि ने अपनी उक्त सचित्र प्रति के विषय में आगे लिखा है कि- “चार प्रकार के वर्गों से (रंगों) से उन चित्रों को घटित किया गया तथा रत्नगणों से उन्हें जड़ा गया। इस प्रकार वह ग्रन्थराज साहू कुन्थुदास के सिर का सेहरा' सिद्ध हुआ। रइधू का यह कथन उस मध्यकाल का है, जब पोथियों को स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने तथा उनके चित्रों अथवा पृष्ठों में हीरे-मोती जड़े जाने की प्रथा थी। फिरदौसकृत स्वर्णाक्षरोंवाला रत्नजटित शाहनामा तथा
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99
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