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वर्धमानश्च यस्य स ऋषभवर्धमानादि: दिगम्बराणां शास्ता सर्वज्ञ आप्तश्चेति । ”
चीनी बौद्ध साहित्य का संदर्भ :- Thus says Prof. Rajime Nakamura “बौद्ध धार्मिक ग्रंथों के चीनी भाषा में जो रूपांतरित संस्करण उपलब्ध हैं, उनमें यत्र-तत्र जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव-विषयक उल्लेख मिलते हैं । भ० ऋषभदेव के व्यक्तित्व सेनापानी भी अपरिचित नहीं हैं— जापानियों को उनका परिचय चीनी - साहित्य द्वारा ' है— जापानी उन्हें 'राक्शव' नाम से पुकारते हैं । हुआ -('णाणसायर' के 'ऋषभ अंक' 1994 में प्रकाशित लेख से ) ।
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हिंदू-पुराणों में 24 तीर्थंकर : - 'पुराण' शब्द का अर्थ है 'पुरा भव:' अर्थात् प्राचीन काल में ऐसा हुआ। इसीप्रकार 'इतिहास' शब्द का अर्थ है " इति इह आसीत् ” यानी प्राचीनकाल में ऐसा था। दोनों ही व्युत्पत्तियों से पुराणों में प्राचीन इतिहास है - ऐसा बोध होता है। जैनों का भी कुछ इतिहास हिंदू-पुराणों में सुरक्षित है। वैदिक धारा के 'पद्मपुराण' में 24 तीर्थंकरों का स्पष्ट उल्लेख है । देवासुर संग्राम के प्रसंग में दानवों से निम्नलिखित कहलाया गया है
“अस्मिन् वै भारते वर्षे जन्म वै श्रावके कुले ।
तपसा युक्तमात्मानं केशोत्पाटनपूर्वकम् ।। 389।। तीर्थंकराश्चतुर्विंशत्तथा तैस्तु पुरस्कृतम् ।
छायाकृतं फणीन्द्रेण ध्यानमात्र प्रदेशिकम् ।। 390।।” अर्थ स्पष्ट है और 24 तीर्थंकरों की विद्यमानता को सूचित करता है । – (सं० मंडलीक, पद्मपुराण, अध्याय 13, श्लोक ऊपर लिखे अनुसार, आनंदाश्रम मुद्रणालय, पूना, 1893 )
निवृत्तिमार्ग सबसे प्राचीन: - दर्शनशास्त्र का ज्ञान जिन्हें है, वे यह भली-भाँति जानते हैं कि वैदिकधर्म प्रवृत्तिवादी है और जैनधर्म निवृत्तिमार्ग का पोषक है। बौद्धधर्म को भी इस धर्म का राही बताया जाता है; किंतु उसकी परंपरा प्राचीन नहीं है – यह सभी विद्वान् स्वीकार करते हैं । भागवतकार का कथन है
“यथा गतिर्देवमनुष्योयः पृथक् । स्व एव धर्मे न परं क्षिपेस्थितः।। 19।। कर्मप्रवृत्तं च निवृत्तमप्यनृतं ... 20 ।। ” – ( भागवत, स्कंध चतुर्थ, अध्याय 4 ) ( उक्त पंक्तियों का गीता प्रस संस्करण में दिया गया अर्थ — “ जिसप्रकार देवता ओर मनुष्यों की गति में भेद रहता है, उसीप्रकार ज्ञानी और अज्ञानी की स्थिति भी एक-सी नहीं होती। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने ही धर्ममार्ग में स्थित रहते हु भी दूसरों के मार्ग की निंदा न करे । प्रवृत्ति ( यज्ञ यागादि) और निवृत्ति (शम - दमादि) रूप दोनों ही प्रकार के कर्म ठीक हैं । ) "
अब निवृत्तिमार्ग की प्राचीनता-संबंधी उद्धरण:
O 20
“सनकं च सनन्दं च सनातनमात्मभूः । सनत्कुमारं च मुनीन्निष्क्रियान्र्ध्वरेतसः । । 4 । ।
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99