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'प्राचीन भारत' पुस्तक में जैनधर्म कुछ
भ्रान्तियों का निराकरण
-राजमल जैन
भारत सरकार की शैक्षणिक संस्था एन०सी०ई०आर०टी० द्वारा प्रकाशित पुस्तक प्राचीन भारत', जो कि 11वीं कक्षा में पढ़ाई जाती है, में जैनधर्म-संबंधी कुछ भ्रांतिपूर्ण उल्लेख पाये गये हैं। उनका निराकरण करना इस लेख का प्रमुख उद्देश्य है; ताकि संबंधित अधिकारियों एवं विद्यार्थियों को जैनधर्म-संबंधी सही जानकारी मिल सके। ___इस पुस्तक में वर्धमान महावीर और जैन-संप्रदाय' शीर्षक उपयुक्त नहीं जान पड़ता है। इससे यह ध्वनित होता है कि वर्धमान महावीर जैनधर्म के संस्थापक हैं। इस लेख के लेखक ने स्वयं ही तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का उल्लेख किया है, जिनका निर्वाण वर्धमान महावीर के निर्वाण से 250 वर्ष पूर्व हुआ था। उनकी ऐतिहासिकता इतिहास में स्वीकृत है। इसके अतिरिक्त लेखक ने इस तथ्य का उल्लेख नहीं किया कि 'जैनधर्म के वास्तविक
संस्थापक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे।' जबकि इसके पोषक कुछ प्रमाण निम्न प्रकार हैं. दर्शन-इतिहास का प्रमाण:-भारत के सर्वमान्य दार्शनिक एवं दर्शनशास्त्र का
इतिहास' के लेखक डॉ० राधाकृष्णन् का इस संबंध में मत यहाँ उद्धृत किया जाता है। “There is no doubut that Jainism prevailed before Vardhaman or Parswanarth. The Yajuruveda mentions the names of three Tirthankaras- Rishabha, Ajitnatha, and Aristanemi. The Bhagavata Purana endorses the view that Rishabha was the founder of Jainism." —(Radhakrishnan. S., Indian Philosophy, Vol. 1&2, 1983) आशा है कि इस अध्याय के लेखक डॉ० राधाकृष्णन को अ-गंभीर या साधारण लेखक नहीं ठहरायेंगे।
पुरातत्ववेत्ता:-श्री बी०सी० भट्टाचार्य का कथन है, "The first tirthankar Risabhdeva about whom recorded traditions are so varied and images (say of the Kushan age) are so many that one finds it difficult to disavow his historical existence.” —(P.25, B.C. Bhattacharya, Jain Iconography, second edition, 1974).
बौद्ध-साहित्य का प्रमाण:-डॉ० भागचंद्र जैन भास्कर ने 'Jainism in Buddhist Literature' नामक शोधप्रबंध में पृ० 23 से 25 तक 1. ऋषभ, 2. अजित, 3. सुपावं, 4. पद्मप्रभु, 5. पुष्पदंत, 6. विमलनाथ, 7. धर्मनाथ, 8. अरिष्टनेमि और 9. पार्श्वनाथ तीर्थंकरों का उल्लेख बौद्ध-ग्रंथों में पाया है।
बौद्ध-न्यायग्रंथ 'न्यायविनिश्चय' (टीका 3, 142) में उल्लेख है, “यथा ऋषभो
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99
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