Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 12
________________ देह में ममत्व छोड़ देता है, तो वही कायोत्सर्ग' कहलाता है। 3. “परिमितकालविषया शरीरे ममत्वनिवृत्ति: कायोत्सर्ग:।" -(तत्त्वार्थराजवार्तिक, 6/24/11) अर्थ:-सीमित/मर्यादित काल के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग' है। 4. "ज्ञात्वा योऽचेतनं कायं नश्वरं कर्मनिर्मितम्। न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्ग करोति स: ।।" – (योगसारप्राभृत, 5/52) अर्थ:-जो भव्यजीव शरीर को अचेतन, विनाशशील एवं कर्मनिर्मित जानकर उसके पोषण आदि कार्यों से विरत होता है; वही 'कायोत्सर्ग' कर सकता है। 5. “सरूव-चिंतणरदो दुज्जण-सुयणाण जो हु मज्झत्थो। देहे वि णिम्ममत्तो काउस्सग्गो तदो तस्स ।।" – (कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 486) अर्थ:-जो साधक निजात्मस्वरूप के चिंतन में लीन रहता है, सज्जन एवं दुर्जन के बीच मध्यस्थभाव रखता है, तथा शरीर से भी ममत्वरहित होता है; उसके 'कायोत्सर्ग' होता है। 6. “सर्वेषां जनानां कायेषु बह्वय: क्रिया: विद्यन्ते, तासां निवृत्ति: कायोत्सर्गः, स एव गुप्तिर्भवति: ।” – (नियमसार गाथा 70 की तात्पर्यवृत्ति' टीका) अर्थ:-सभी व्यक्तियों की शरीरों में अनेकविध क्रियायें होती हैं, उन क्रियाओं की निवृत्ति है 'कायोत्सर्ग' है। इसी का दूसरा नाम ‘गुप्ति' भी है। 'मूलाचार' ग्रन्थ में 'कायोत्सर्ग' को 'दुःख का नाश करने की विधि' कहा गया है। 'कायोत्सर्ग' के दो प्रकार माने गये हैं- 1. मानसिक और 2. कायिक । ‘भगवती आराधना' ग्रंथ की टीका में उनके बारे में कहा गया है कि "मन से शरीर में 'यह मेरा है' —ऐसी बुद्धि का त्याग करना 'मानस कायोत्सर्ग' है तथा दोनों हाथ नीचे छोड़कर दोनों पैरों में चार अंगुलमात्र का अन्तर रखकर निश्चल खड़े होना ‘कायिक कायोत्सर्ग' है।" यही बात आचार्य कुन्दकुन्द ने 'मूलाचार' में भी कही है "वोसरिद-बाहुजुगलो चदुरंगुल-अंतरेण समपादो। सव्वंग-चलणरहिदो काउस्सग्गो विसुद्धो दु ।।" --- (गाथा 650) _ 'कायोत्सर्ग' की विधि के सम्बन्ध में पंडित शिवाशाधरसूरि लिखते हैं—“कायोत्सर्ग के समय अपनी प्राणवायु को भीतर प्रविष्ट करके उसे आनन्द से मुकुलित हृदयरूपी कमल में स्थिर कर 'जिनमुद्रा' के द्वारा ‘णमोकार मंत्र' का ध्यान करना चाहिये। ‘णमो अरिहंताणं' का जप करते समय प्राणवायु श्वास के रूप में अंदर खींचें तथा फिर पूर्वोक्त विधि से उसे अन्तस् में थोड़ी देर स्थिर करके ‘णमो सिद्धाणं' का जप करते हुए निश्वास के रूप में बाहर निकाल दें। पुनः ‘णमो आइरियाणं' में श्वास एवं ‘णमो उवज्झायाणं' में नि:श्वास, ‘णमो लोए' में श्वास एवं 'सव्वसाहूणं' में नि:श्वास; - इसी विधि से करें। इसप्रकार तीन श्वासोच्छ्वासों में एक मंत्र-जाप पूर्ण होता है। ऐसे नौ बार प्रयोग करने 00 10 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99

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