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“कायोत्सर्गो भवति सततं निश्चयात् संयतानाम् । कायोद्भूतं प्रबलतरतत्कर्ममुक्ते: सकाशात् ।। वाचां जल्प-प्रकर-विरतेनिसानां निवृत्ते: ।
स्वात्मध्यानादपि च नियतं स्वात्मनिष्ठापराणाम् ।।" – (कलश 191) अर्थ:-जो निश्चय से स्वात्मनिष्ठापरायण (आत्मध्यान में लीन) हैं, जिन्होंने प्रबल शारीरिक क्रियाओं को त्याग दिया है, वाचिक जल्पसमूह से भी जो विरत हैं तथा मानसिक विकल्पों से भी निवृत्त हैं —ऐसे संयमी जीवों के निज आत्मा के ध्यान के कारण निश्चय से निरन्तर कायोत्सर्ग' होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'कायोत्सर्ग' को 'मोक्ष का उपकारी' बताया है"काउस्सग्गं मोक्खपहे देहसयं घादिकम्म-अदिचारं।
इच्छामि अहिट्ठा, जिणसेविद-देसिदत्तादो।।" - (मूलाचार 7/651) अर्थ:-यह ‘कायोत्सर्ग' मोक्षमार्ग का उपकारी है, घातिया कर्मों का भी विनाशक है, उसे मैं हृदय से स्वीकारता हूँ; क्योंकि वीतराग जिनेन्द्र भगवन्तों ने इसका सेवन किया है और सेवन करने का उपदेश भी दिया है। ___ आश्चर्य की बात है कि मोक्षमार्ग के इतने महत्त्वपूर्ण अंग कायोत्सर्ग' की व्यावहारिक प्रक्रिया को दिगम्बर जैन समाज प्राय: भूल चुका है। मात्र रूढ़िवश यत्किंचित् रूप से हम करते हैं। जबकि इसकी बाह्य विधि भी बड़ी वैज्ञानिक है। प्रसन्नता की बात है कि दिगम्बर जैनाचार्यों के ग्रंथों का गहन स्वाध्याय करनेवाले श्वेताम्बर जैन तेरापंथ के वर्तमान आचार्य महाप्रज्ञ जी ने वर्षों पहिले इसकी बाह्य विधि की सूक्ष्म शोध लगाकर अपना है और इसे उदारभाव से जिज्ञासुओं को सिखाने का कार्य किया है। उनकी शोध प्रामाणिक है तथा प्रथम भूमिका में बहुत उपयोगी भी है। हमारे साधुगण एवं विद्वान् इस महनीय मोक्षमार्गीय प्रक्रिया को विधिवत् सीखकर समाज को प्रशिक्षित करें, तो बाहरी तनाव (टेंशन) आदि से बचकर समताभाव की आराधना एवं मोक्षमार्ग में अग्रसर होने का एक अच्छा वातावरण निर्मित हो सकता है।
अनित्य-भावना 'नलिनी-दलगत-जलवत्तरलं तद्वज्जीवनमतिशयचपलम् । क्षणमपि सज्जन-संगतिरेका भवति भवार्णव-तरणे नौका ।।'
___-(आद्य शंकराचार्य, मोहमुद्गर, 7) अर्थ:-जैसे कि कमलिनी के पत्ते पर पड़ा हुआ जलबिन्दु अत्यधिक चंचल, अस्थिर होता है; उसीप्रकार यह जीवन भी अत्यन्त चपल (क्षणभंगुर या विनाशशील) है। ऐसी विषमता में भी यदि कोई व्यक्ति क्षणभर के लिए भी सज्जन की संगति करता है, तो वह उसे संसाररूपी समुद्र से पार उतरने के लिए नौका के समान सहायक सिद्ध होती है।
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99