Book Title: Prakrit Vidya 1999 07
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 11
________________ कायोत्सर्ग : परमात्मा बनने का विधान . -आचार्य विद्यानन्द मुनि प्रदर्शन की कामना से रहित सरल, निश्छल साधना को वर्तमानयुगीन चिन्तन के अनुरूप वैज्ञानिक धरातल की कसौटी पर परखकर उसकी यथार्थ एवं आगमानुकूल व्यावहारिक परिणति अपने जीवन में अपनाने एवं उस अनुभूति-प्रमाणित सत्य को देश एवं समाज के बीच दोटूक रूप में प्रस्तुत करने की पूज्य आचार्यश्री की विशेषता सर्वविदित है। रूढ़ि से किये जाने वाली क्रियाओं की खानापूर्ति को वास्तविकता एवं व्यावहारिक उपयोगिता के आलोक में काँच व मणि की भाँति भेदज्ञान-सहित प्रस्तुति उनके चिंतन का मौलिक गुण है। 'कायोत्सर्ग' जैसी आवश्यक विधि के बारे में उनकी लेखनी से प्रसूत यह दिशाबोधक आलेख समस्त श्रमणों व श्रावकों को पठनीय एवं मननीय है। -सम्पादक पर-पदार्थों की आसक्ति के प्रबल बन्धन में बँधा हुआ यह जीव पर्याप्त शास्त्रज्ञान कर लेने पर भी संसारचक्र में मुक्ति का मार्ग प्राप्त नहीं कर पाता है। तथा परपदार्थों में आसक्ति जुड़ने का मूलकारण शरीर है। अत: यदि प्राप्त शरीर से मोह-ममता की भावना यदि शिथिल पड़े, तभी यह जीव मोक्षमार्ग की ओर अग्रसर हो सकता है। इस निमित्त जैनसाधना में एक विशिष्ट क्रिया का अभ्यास नित्यप्रति करने का विधान है, जिसे 'कायोत्सर्ग' कहते हैं। इस पद में दो शब्द हैं—काय + उत्सर्ग । 'काय' अर्थात् शरीर एवं 'उत्सर्ग' यानि त्याग; — इसप्रकार ‘शरीर का त्याग' अर्थात् शरीर एवं शरीर से सम्बद्ध पदार्थों में आसक्ति एवं ममत्व का त्याग कर आत्मस्थ होने की नैष्ठिक चेष्टा ही कायोत्सर्ग' है। शास्त्रीय शब्दावलि में “बाहर में क्षेत्र-वास्तु आदि पदार्थों का तथा अंतस् में क्रोधादि कषायों का नित्य त्याग करना, तथा अनियतकाल के लिए शरीर का त्याग करना ही 'कायोत्सर्ग' है। इसे 'व्युत्सर्ग तप' या 'व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त' भी कहते हैं। शरीर से ममत्व हटाकर बाहरी विपरीतताओं से अप्रभावित रहकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त से लेकर उत्कृष्ट एक वर्ष-पर्यन्त निश्चल खड़े रहना ‘कायोत्सर्ग' है।" 'कायोत्सर्ग' की परिभाषा विभिन्न ग्रंथों में निम्नानुसार प्राप्त होती है:1. कायादी-परदव्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं। __तस्स हवे तणुसग्गं जो झायदि णिब्बियप्पेण ।। -(णियमसार, 121) अर्थ:-जो भव्यजीव शरीर आदि परद्रव्यों में आसक्ति/लीनता छोड़कर निज-आत्मा का निर्विकल्परूप से ध्यान करता है, उसे 'कायोत्सर्ग' होता है। 2. "जिणगुण-चिंतणजुत्तो काउस्सग्गो तणुविसग्गो।" - (मूलाचार, 28) अर्थ:-जिनेन्द्र परमात्मा के वीतरागता आदि गुणों का चिंतन करता हुआ जीव जब प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 009

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