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करना धर्म है। अशोक के अभिलेखों में प्रतिपादित धर्म का साम्प्रदायिकता से कहीं भी सम्बन्ध नहीं है। उसके द्वारा निर्दिष्ट सार्वजनिय एवं समन्वयात्मक धर्म मान मात्र के लिए उपादेय है। दूसरे शब्दों में इसे बहुश्रुत एवं कल्याणगामी धर्म संज्ञा दी जा सकती है। अपनी धार्मिक इच्छा व्यक्त करते हुए सातवें शिलाले. कहा है कि सब मतों के व्यक्ति सब स्थानों पर रह सकें क्योंकि वे सभी अ. संयम एवं हृदय की पवित्रता चाहते हैं। इन अभिलेखों के माध्यम से अशोक धर्म-निरपेक्षता का जो संदेश दिया है, वह वर्तमान युग में अत्यंत प्रासंगिक है। व इच्छा करता था कि सभी सम्प्रदाय के लोग उसके राज्य में बसें और समृद्धि को प्राप्त हों। सम्प्रदायों में सारवृद्धि का उल्लेख करते हुए बारहवें शिलालेख में कहा गया है कि इसके लिए वाणी का संयम तो आवश्यक है ही साथ ही लोग अपने सम्प्रदाय का आदर व दूसरे सम्प्रदाय की निन्दा न करें।
सारवढी तु बहुविधा। वस तु इदं मूलं व वचगुती किंति आत्पपासंडपूजा व पर पासंड गरहा व न भवे अप्रकरणम्हि।... (बारहवाँ शिलालेख)
अपने धर्म का उसने पड़ोसी राज्यों में भी प्रचार किया। तेरहवें अभिलेख में प्रयुक्त धर्मविजय शब्द धर्म प्रचार का ही अभियान था। अशोक ने बौद्ध धर्म का प्रचार धर्म यात्राओं से किया था। राज्याभिषेक के दसवें वर्ष में वहाँ "बोध गया" गया था।
देवानंपियो पियदसि राजा दसवर्साभिसितो संतो अयाय संबोधि।.. (आठवाँ शिलालेख)
अशोक के अभिलेखों की भाषा मागधी प्राकृत है। कहीं कहीं इसमें पालि, पैशाची, शौरसेनी एवं संस्कृत के रूप भी मिलते हैं। इन अभिलेखों में ई. पू. तीसरी शताब्दी की प्राकृत का स्वरूप सुरक्षित है। साथ ही प्राचीन भारतीय भाषाओं के मानचित्र को समझने की दृष्टि से भी ये अभिलेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। शौरसेनी, अर्धमागधी एवं पालि भाषा के प्राचीन रूप एवं उनके विकास क्रम की जानकारी के लिए ये सर्वोत्तम लिखित प्रमाण हैं। इन अभिलेखों में तात्कालीन भाषा के
16 0 प्राकृत रत्नाकर