________________ समाधिमरण सम्बन्धी प्रकीर्णकों की विषयवस्तु : 17 (11) अतुर प्रत्याख्यान' (3) इस प्रकीर्णक में 71 गाथायें हैं / इसे आचार्य वीरभद्र कृत माना जाता है / 'मरण' से सम्बन्धित होने के कारण इसे अन्तकाल प्रकीर्णक भी कहा जाता है / इसे बृहदातुरप्रत्याख्यान भी कहते हैं / दसवीं गाथा के पश्चात कुछ गद्यांश भी हैं। मरण के बाल, बालपण्डित और पण्डितमरण ये तीन भेद बताये गये हैं / बालमरण एवं पण्डितमरण का विवेचन है / इसमें मंगलाचरण का अभाव है। सर्वप्रथम बालपण्डितमरण की व्याख्या की गई है / सम्यग्दृष्टि देशविरत जीव का मरण बालपण्डित मरण कहा गया है / पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत और संलेखना के धारक को देशयति कहा गया है / संलेखना के उपक्रम के बारे में यह निर्दिष्ट किया गया है कि जो भक्तपरिज्ञा में वर्णित है उसी से यथायोग्य जान लें / बालपण्डितमरण करने वाले का वैमानिकों में उपपात एवं सातभव से सिद्धि बतायी गई है / पण्डितमरण की चर्चा करते हुए उसके वेसठ अतिचारों की शुद्धि. जिन वन्दना, गणधर वन्दना और पाँच महाव्रतों के अतिक्रमण का सर्वप्रत्याख्यान करने के पश्चात संथारे की प्रतिज्ञा की गई है , 3 सामायिक, सर्वबाह्याभ्यन्तर उपधि, अठारह पापस्थानों का त्याग, एकमात्र आत्मा का अवलम्बन, आत्मा ही केवलज्ञान दर्शनादि रूप है, इसका निरूपण है। इस प्रकरण में एकत्व भावना, प्रतिक्रमण, आलोचना, क्षमापना का भी निरूपण है / ___ असमाधिमरण का फल बताते हुए कहा गया है कि जो अष्ट मदों से युक्त चंचल बुद्धि और कुटिलभाव वाले असमाधिपूर्वक मरण को प्राप्त होते हैं, उनको आराधक नहीं कहा जाता है / इसप्रकार मरने पर देवगति, बोधि दुर्लभ होती है और संसार-चक्र बढ़ जाता है। बालमरण के प्रसङ्ग में कहा गया है कि जिनवचन को न जानने वाले बहुत से अज्ञानी बालमरण मरते हैं / ये शस्त्रग्रहण, विषभक्षण, आग से जलने और जल में प्रवेश करने से मरते हैं। उद्वेगजनक जन्म-मरण और नरक की वेदना का स्मरण कर पण्डितमरण मरना .चाहिए। इसके पश्चात पण्डितमरण को उद्देश कर भावनाओं का निरूपण और पण्डित मरण की आराधना विधि का वर्णन है / पण्डितमरण की भावनाओं के प्रसङ्ग में कहा गया है कि समस्त सांसारिक भोगों से तृप्ति नहीं हो सकती, राग-द्वेष का भेदन कर, अष्टकर्म समूह को नाश कर जन्म-मरण चक्र को भेदकर भव से मुक्ति हो जाएगी / एक पद और श्लोक जिससे मनुष्य को वीतराग के मार्ग में संवेग उत्पन्न होता है, उसके चिन्तन से परुष आराधक होता है / आराधक उत्कृष्टतः तीन भव करके निर्वाण प्राप्त करता है / आराधक यह विचार करता है कि मृत्यु धैर्यवान की भी होती है और कायर की भी, तो क्यों न धैर्य से मृत्यु को प्राप्त किया जाय ? चारित्र रहित और चरित्रवान दोनों की ही जब मृत्यु होती है, तो क्यों न सचारित्र मृत्यु का वरण किया जाय ? अन्त में ग्रन्थकार कहता है कि मरणकाल में जो इसप्रकार प्रत्याख्यान करता है वह धीर, ज्ञानी शाश्वत स्थान को प्राप्त करता है।