Book Title: Prakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 243
________________ तित्थोगाली प्रकीर्णक और प्राचीन जैन इतिहास : 231 का तथा शकवंशीय राजाओं के राज्य समय का भी इसमें उल्लेख किया गया है / कल्कि राजा की कथा के साथ-साथ उसके पुत्र दत्तराजा की वंश-परम्परा का वर्णन भी किया गया है (गाथा 621-627) / इसके साथ ही भगवान महावीर से लेकर स्थूलभद्र पर्यन्त पट्टपरम्परा का उल्लेख भी इस प्रकीर्णक में किया गया है / इसप्रकार इस प्रकीर्णक में प्राचीन जैन इतिहास का परिचय दिया गया है / तित्थोगाली प्रकीर्णक के अज्ञात रचनाकार ने प्रारम्भिक मंगल गाथाओं में सर्वप्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव को तत्पश्चात अजितनाथ आदि मध्यवर्ती बाईस तीर्थङ्करों को और अन्त में तीर्थकर महावीर को वन्दन किया है / फिर श्रमण संघ को वन्दन करके श्रुतज्ञान से जनसाधारण को अवगत कराने हेतु रचनाकार कहता है कि महावीर ने राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में गणधरों को एक लाख पदों में विस्तारपूर्वक जो श्रुतज्ञान कहा था, मैं उसके अति संक्षिप्त और अति विस्तार को छोड़कर उसे साररूप में यहाँ कहता हूँ (गाथा 1 - 6) / मंगल और अभिधेय के पश्चात् ग्रन्थकार कहता है कि लोक में भरत तथा ऐरावत क्षेत्र में यह काल अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी के रूप में परिवर्तित होता रहता है, शेष क्षेत्रों में यह अवस्थित रहता है / अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल का प्रमाण बतलाकर विद्वान लेखक ने दोनों प्रकार के आरों का वर्णन किया है और सुषमा-सुषमा तथा दुःषमा-दुःषमा आरों का काल प्रमाण निर्दिष्ट किया है / बारह आरों का कालप्रमाण जैसा अन्य शास्त्रों में भी वर्णित है, बतलाने के पश्चात् कर्मभूमि तथा अकर्मभूमि का कथन करके प्रथम सुषमासुषमा नामक आरे का विस्तारपूर्वक विवेचन करते हुए कहा है कि इस काल में भरत तथा ऐरावत क्षेत्रों में भी दस कुरुओं के समान अकर्मभूमि होती है / इस काल में इन क्षेत्रों की भूमियां मणि-कनक से विभूषित होती हैं और पांच वर्ण के रत्न और मणियों से तथा भित्तिचित्रों से सुशोभित होती हैं / यहाँ बावड़ियां, पुष्करिणियां और दीर्घिकाएँ स्थान-स्थान पर सुशोभित होती हैं उनका स्वच्छ वशीतल जल मधुघृत, इक्षुरस तथा श्रेष्ठ वारूणि के समान होता है, जिनमें भित्र-भिन्न जाति के कमल सुशोभित होते हैं, स्थान-स्थान पर कामक्रेलिलतागृह और उनमें विचित्र प्रकार के रत्नचित्रित आंगन होते हैं, जहाँ मणि तथा कनकशिलाएँ दृष्टिगोचर होती हैं / यहाँ ग्राम, नगर आदि सुरालयों के समान होते हैं / इस काल में असि, मसि, कृषि तथा राजधर्म का कोई व्यवहार नहीं होता है / मैथुनधर्म पाया जाता है, किन्तुस्वामी-सेवक (प्रेष्य) का कोई व्यवहार नहीं होता है / यहाँ के निवासी सदा अनुपम सुख का अनुभव करते हैं, इनका श्वासोच्छ्वास भी नीलकमल के समान सुगन्धित होता है, वे निर्भय, गंभीर, दयालु और सरल स्वभाव वाले एवं अपरिमित पराक्रम तथा बल से सम्पत्र होते हैं / अहमिन्द्र व ऋषभ-नाराच-संहनन के धारक एवं मानोन्मान से मुक्त होते हैं / वे सर्वाङ्गसुन्दर, सुरूप, सौभाग्यशाली, मृगराज के समान पराक्रमशाली और श्रेष्ठ गजगति तथा श्रेष्ठ बत्तीस लक्षणों के धारक होते हैं / वे पृथ्वी से प्राप्त पुष्प तथा फलों काआहार करते हैं / इस काल में इन क्षेत्रों में पृथ्वी का रस शक्कर या मिश्री के समान होता है और पुष्प तथा फल भी अनुपम रसयुक्त, स्वादिष्ट एवं अमृत रस से भी ज्यादा श्रेष्ठ होते हैं / पांच

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