Book Title: Prakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 245
________________ तित्थोगाली प्रकीर्णक और प्राचीन जैन इतिहास : 233 थी, जो घटते-घटते भगवान पार्श्वनाथ के शरीर की ऊँचाई नौ हाथ की तथा महावीर के शरीर की ऊँचाई सात हाथ की बतलाई गई है (गाथा 368) ।ऋषभदेव का आयुष्य चौरासी लाख पूर्वका था, जो घटते-घटते पार्श्वनाथका 100 वर्ष का तथा महावीर का आयुष्य केवल 72 वर्ष का वर्णित किया गया है / यह आयुष्य का वर्णन पांचवें आरे का है / छठे आरे में आयु, शरीर की ऊँचाई, बल, बुद्धि, शौर्य, वीर्य क्रमशः हीन और हीनतर होते चले जाएगें, यह सब कालचक्र की महिमा है / कौन-कौन तीर्थङ्कर कुमार अवस्था में रहे? कौन राजा अथवा चक्रवर्ती एवं तीर्थकर दोनों पदों को सुशोभित करने वाले हुए ? इसका वर्णन किया गया है (गाथा 376-388) / भगवान ऋषभदेव पूर्वभव में चौदहपूर्वो के धारक थे तो बाकी 23 तीर्थङ्कर पूर्वभवों में ग्यारह अंगों के ही ज्ञाता थे (गाथा 391) / चौबीस तीर्थङ्करों की निष्क्रमण-नगरी, उनकासमय तथा उनके साथ प्रव्रजित होने वाले स्त्री-पुरुषों की संख्या का निरूपण भी ग्रन्थ में किया गया है (गाथा 392-395) / चौबीस तीर्थङ्करों ने दीक्षा लेते समय क्या-क्या तपस्या स्वीकार की थी और उन्हें प्रथम भिक्षा प्राप्ति कहाँ और कब हुई, इसकी महिमा का सुन्दर वर्णन गाथा ४००से ४०२में किया गया है / तीर्थङ्करों को केवलज्ञान की प्राप्ति किस काल में हुई ? इसका संकेत गाथा 403-404 में किया गया है, जबकि गाथा ४०५में 10 धर्मतीर्थों का कथन किया गया है / इसके पश्चात् सभी 24 तीर्थङ्करों की केवलज्ञान भूमियों, चैत्यों तथा चैत्यवृक्षों के नामों का वर्णन किया गया है (गाथा 406-411) सभी तीर्थङ्करों को केवलज्ञान की प्राप्ति कौनसे माह, पक्ष, तिषितथा नक्षत्र में हुई, इसकी प्रामाणिक जानकारी इस ग्रन्थ में दी गई है (गाथा 412-421) / केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् उनके समवसरण (धर्मसभा) की रचना देवता किस प्रकार से करते हैं, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी तथा वैमानिक देवताओं की क्या-क्या भूमिका होती है तथा मनुष्य, तिर्यञ्च, देवता कहाँ बैठते हैं, कहाँ उपदेशामृत का पान करते हैं और सभी अपनी-अपनी भाषाओं में कैसे उपदेश ग्रहण करते हैं, इन सब बातों का अद्भुत वर्णन ग्रन्थ में किया गया है (गाथा 422-447) / ग्रन्थ में देवताओं के द्वारा तीर्थङ्करों को नमस्कार करने व उनकी पूजा, स्तुति करने का जो वर्णन है, वह अत्यन्त प्रशंसनीय है / जैनधर्म के.२-४ तीर्थङ्करों में से प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्कर का धर्म सप्रतिक्रमण' है, जबकि मध्यवर्ती 22 तीर्थङ्करों का धर्म कारण विशेष उपस्थित होने पर ही प्रतिक्रमण करने का विधान करता है / प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्कर को छोड़कर मध्यवर्ती 22 तीर्थङ्कर केवल सामायिकचारित्रका उपदेश देते हैं जबकि प्रथम तथा अन्तिमतीर्थकर छेदोपस्थापनिक चारित्र का उपदेश देते हैं, यह संकेत भी ग्रन्थ में दिया गया है (गाथा 448-450) / .... प्रस्तुत ग्रन्थ में चौबीस तीर्थङ्करों के गणधरों तथा शिष्यों की संख्या का प्ररूपण किया गया है (गाधा 452-470) / आगे की गाथाओं में चौबीस तीर्थङ्करों के शिष्य परिवार, तीर्थङ्करों के माता-पिता तथा उनके समकालीन राजाओं का जो वर्णन किया गया है (गाथा 471-495), वह जैन साहित्य के इतिहास पर अनुसंधान करने हेतु नया विषय हो सकता है / गाथा ४९६से 526 तक चौबीस तीर्थङ्करों के काल का अन्तर निरूपित

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