Book Title: Prakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 229
________________ प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित : 217 मंखलि गोशालक के उपदेशों को देखते हैं तो यहाँ भी हमें परोक्ष रूप से नियतिवाद के संकेत उपलब्ध होते हैं / इस अध्याय में कहा गया है कि जो पदार्थों की परिणति को देखकर कम्पित होता है, वेदना का अनुभव करता है, क्षोभित होता है, आहत होता है, स्पंदित होता है, चलायमान होता है, प्रेरित होता है, वह त्यागी नहीं है / इसके विपरीत जो पदार्थों की परिणति को देखकर कम्पित नहीं होता है, क्षोभित नहीं होता है, दुःखित नहीं होता है, वह त्यागी है / परोक्ष रूप से यह पदार्थों की परिणति के सम्बन्ध में नियतिवाद का प्रतिपादन है / संसार की अपनी एक व्यवस्था और गति है वह उसी के अनुसार चल रहा है, साधक को उसका ज्ञाता-द्रष्टा तो होना चाहिए किन्तु द्रष्टा के रूप में उससे प्रभावित नहीं होना चाहिए। नियतिवाद की मूलभूत आध्यात्मिक शिक्षा यही हो सकती है कि हम संसार के घटनाक्रम में साक्षी भाव से रहें / इसप्रकार यह अध्याय गोशालक के मूलभूत आध्यात्मिक उपदेश को ही प्रतिबिम्बित करता है / इसके विपरीत जैन और बौद्ध साहित्य में जो मंखलि गोशालक के सिद्धान्त का निरूपण है, वह वस्तुतः गोशालक की इस आध्यात्मिक अवधारणा से निकाला गया एक विकृत दार्शनिक फलित है / वस्तुतः ऋषिभाषित का रचयिता गोशालक के सिद्धान्तों के प्रति जितना प्रामाणिक है, उतने प्रामाणिक त्रिपिटक और परवर्ती जैन आगमों के रचयिता नहीं हैं / महाभारत के शान्तिपर्व के 177 वें अध्याय में मंखि ऋषि का उपदेश संकलित है इसमें एक ओर नियतिवाद का समर्थन है, किन्तु दूसरी ओर इसमें वैराग्य का उपदेश भी है / इस अध्याय में मूलतः द्रष्टा भाव और संसार के प्रति अनासक्ति का उपदेश है / इंसमें यह बताया गया है कि संसार की अपनी व्यवस्था है / मनुष्य अपने पुरुषार्थ से भी उसे अपने अनुसार नहीं मोड़ पाता है, अतः व्यक्ति को द्रष्टा भाव रखते हुए संसार से विरक्त हो जाना चाहिए / महाभारत के इस अध्याय की विशेषता यह है कि मंखि ऋषि को नियतिवाद का समर्थक मानते हुए भी उस नियतिवाद के माध्यम से उन्हें वैराग्य की दिशा में प्रेरित बताया गया है / इस आधार पर ऋषिभाषित में मंखलिपुत्र का उपदेश जिस रूप में संकलित मिलता है वह निश्चित ही प्रामाणिक है / .' इसीप्रकार ऋषिभाषित के नवें अध्याय में महाकाश्यप के और अड़तीसवें अध्याय में सारिपुत्त के उपदेश संकलित हैं / ये दोनों ही बौद्ध परम्परा से सम्बन्धित रहे हैं / यदि हम ऋषिभाषित में उल्लिखित इनके विचारों को देखते हैं तो स्पष्ट रूपसे इसमें हमें बौद्धधर्म की अवधारणा के मूल तत्त्व परिलक्षित होते हैं / महाकाश्यप अध्याय में सर्वप्रथम संसार की दुःखमयता का चित्रण है / इसमें कर्म को दुःख का मूल कहा गया है और कर्म का मूल जन्म को बताया गया है, जो कि बौद्धों के प्रतीत्यसमुत्पाद का ही एक रूप है / इसी अध्याय में एक विशेषता हमें यह देखने को मिलती है कि इसमें कर्म-सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए 'सन्तानवाद' की चर्चा है जो कि बौद्धों का मूलभूत सिद्धान्त है / इस अध्याय में निर्वाण के स्वरूप को समझाने के लिए बौद्ध दर्शन के मूलभूत दीपक वाले उदाहरण को प्रस्तुत किया गया है / पूरा अध्याय सन्तानवाद और कर्मसंस्कारों के माध्यम से वैराग्य का उपदेश प्रदान करता है / इसप्रकार हम यह कह सकते हैं कि इसमें बौद्धधर्म के मूल बीज उपस्थित

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