________________ 220 : प्रो० सागरमल जैन इस ग्रन्थ के रचनाकाल तक एक उपदेष्टा के रूप में लोक परम्परा में मान्य रहे हों और इसी आधार पर इनके उपदेशों का संकलन ऋषिभाषित में कर लिया गया है। उपर्युक्त चर्चा के आधार पर हम यह अवश्य कह सकते हैं कि ऋषिभाषित के ऋषियों में उपर्युक्त चार-पाँच नामों को छोड़कर शेष सभी प्रागैतिहासिक काल के यथार्थ व्यक्ति हैं, काल्पनिक चरित्र नहीं हैं। निष्कर्ष रूप में हम इतना ही कहना चाहेंगे कि ऋषिभाषित न केवल जैन परम्परा की अपितु समग्र भारतीय परम्परा की एक अमूल्य निधि है और इसमें भारतीय चेतना की धार्मिक उदारता अपने यथार्थ रूप में प्रतिबिम्बित होती है / ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका ' महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि यह हमें अधिकांश ज्ञात और कुछ अज्ञात ऋषियों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक सूचनाएँ देता है / जैनाचार्यों ने इस निधि को सुरक्षित रखकर भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की बहुमूल्य सेवा की है / वस्तुतः यह प्रकीर्णक ग्रन्थ ईसा पूर्व 10 वीं शती से लेकर ईसा पूर्व 6 ठीं शती तक के अनेक भारतीय ऋषियों की ऐतिहासिक सत्ता का निर्विवाद प्रमाण है / सन्दर्भ-सूची (अ) से किं कालियं ? कालियं अणेगविहं पण्णत्तं / तं जहा उत्तराज्झयणाई 1, दसाओ 2, कप्पो 3, ववहारो 4, निसीह 5, महानिसीह 6, इसिभासियाई 7. जंबद्दीपण्णत्ती 8, दीवसागरपण्णत्ती 9 / –नन्दिसूत्र : प्रका० महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, 1968, सूत्र 84 (ब) नमो तेसिं खमासमणाणं जेहिं इमं वाइअं अंगबाहिरं कालिअं भगवंतं / तंजहा- 1. उत्तराज्झयणाई, 2. दसाओ, 3. कप्पो, 4. ववहारो, 5. इसिभासिआई, 6. निसीह, 7. महानिसीह.......। -पाक्षिकसूत्र : प्रका० देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, सीरिज 99, पृ० 79 अंगबाह्यमनेकविधम् / तद्यथा-सामायिकं, चतुर्विंशतिस्तवः, वन्दनं, प्रतिक्रमणं, कायव्युत्सर्गः, प्रत्याख्यानं, दशवैकालिकं, उत्तराध्यायाः, दशाः, कल्पव्यवहारौ, निशीथं, ऋषिभाशितानीत्येवमादि। -तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् (स्वोपज्ञभाष्य): प्रका० देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, सीरिज 57, सूत्र 1/20 तथा ऋषिभाषितानि उत्तराध्ययनादीनि.....। -आवश्यक नियुक्तिः हरिभद्रीयवृत्ति, पृ० 206 ऋषिभाषितानां च देवेन्द्रस्तवादीनां नियुक्ति...... / -आवशयक नियुक्ति, हरिभद्रीय वृत्ति०, पृ० 41 2.