Book Title: Prakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 227
________________ प्राचीनतम प्रकीर्णक : ऋषिभाषित : 215 आगम-साहित्य में अन्यत्र भी मिलता है / पांच महाव्रतों और चार कषायों का विवरण तो ऋषिभाषित के अनेक अध्ययनों में आया है / महाकाश्यप नामक ९वें अध्ययन में पुण्य, पाप तथा संवर और निर्जरा की चर्चा उपलब्ध होती है। इसी अध्याय में कषाय का भी उल्लेख है / नवें अध्ययन में कर्म के आदान की चर्चा करते हुए मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग को बन्धन का कारण कहा गया है, जो जैन परम्परा के पूर्णतः अनुरूप है / इसमें जैन परम्परा के अनेक पारिभाषिक शब्द यथा उपक्रम, बद्ध , स्पृष्ट, निकाचित, निर्जीर्ण, सिद्धि, शैलेषी-अवस्था, प्रदेशोदय, विपाकोदय आदि पाये जाते हैं / इस अध्ययन में प्रतिपादित आत्मा की नित्यानित्यता की अवधारणा, सिद्धावस्था का स्वरूप एवं कर्मबन्धन और निर्जरा की प्रक्रिया जैन दर्शन के समान है / . इसी तरह अनेक अध्ययनों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अवधारणा भी मिलती है / बारहवें याज्ञवल्क्य नामक अध्ययन में जैन परम्परा के अनुरूप गोचरी के स्वरूप एवं शुद्धैषणा की चर्चा मिल जाती है / आत्मा अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और कृत-कर्मों के फल का भोक्ता है, यह बात भी पन्द्रहवें मधुरायन नामक अध्ययन में कही गयी है / सत्रहवें विदुर नामक अध्ययन में सावधयोग, विरति और समभाव की चर्चा है / उनीसवें आरियायणनामक अध्ययन में आर्यज्ञान, आर्य दर्शन और आर्य चरित्र के रूप में प्रकारान्तर से सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र की ही चर्चा है / बाईसवां अध्ययन धर्म के क्षेत्र में पुरुष की प्रधानता की चर्चा करता है तथा नारी की निन्दा करता है, इसकी सूत्रकृतांग के 'इत्थिपरिण्णा' नामक अध्ययन से समानता है / तेईसवें रामपुत्त नामक अध्ययन में उत्तराध्ययन (28/35) के समान ही ज्ञान के द्वारा जानने, दर्शन के द्वारा देखने, संयम के द्वारा निग्रह करने तथा तप के द्वारा अष्टविध कर्म के विधूनन की बात कही गयी है। अष्टविध कर्म की यह चर्चा केवल जैन परम्परा में ही पायी जाती है / पुन: चौबीसवें अध्ययन में भी मोक्ष मार्ग के रूपमें ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की चर्चा है। इसी अध्याय मे देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारक-इन चुतर्गतियों की भी चर्चा है / पच्चीसवें अम्बड नामक अध्ययन में चार कषाय, चार विकथा, पांच महाव्रत, तीन गुप्ति, पंच इन्द्रिय-संयम, छ: जीवनिकाय, सात भय, आठ मद, नौ प्रकार का ब्रह्मचर्य तथा दस प्रकार के समाधिस्थान की चर्चा है / इसप्रकारे इस अध्ययन में जैन परम्परा में मान्य अनेक अवधारणाएँ एक साथ उपलब्ध हो जाती हैं। इसी अध्ययन में आहार करने के छ: कारणों की चर्चा भी है, जो स्थानांग (स्थान६) आदि में मिलती है / स्मरण रहे कि यद्यपि जैनागमों में अम्बड को परिव्राजक माना है, फिर भी उसे महावीर के प्रति श्रद्धावान बताया है। यही कारण है कि इसमें सर्वाधिक जैन अवधारणएँ उपलब्ध हैं / ऋषिभाषित के छब्बीसवें अध्ययन में उत्तराध्ययन के पच्चीसवें अध्ययन के समान ही ब्राह्मण के स्वरूप की चर्चा है / इसी अध्ययन में कषाय, निर्जरा, छ: जीवनिकाय और सर्व प्राणियों के प्रति दया का भी उल्लेख है / इकतीसवें पार्श्वनामक अध्ययन में पुनः चातुर्याम, अष्टविध कर्मग्रन्थि, चार गति; पंचास्तिकाय तथा मोक्ष स्थान के स्वरूप का दिग्दर्शन होता है / इसी अध्ययन में जैन परम्परा के समान जीव को ऊर्ध्वगामी और पुद्गल को अधोगामी कहां गया है, किन्तु पार्श्व तो जैनपरम्परा में मान्य ही हैं अतः इस.अध्ययन में जैन अवधारणाएँ होना आश्चर्यजनक नहीं है /

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