________________ 18 : डॉ० अशोक कुमार सिंह (12) जिनशेखर श्रावकप्रति सुलसा श्रावक आराधित आराधना'१ ___ इस प्रकीर्णक में 74 गाथाओं में प्रत्यासन्न मरण-प्रेरणा अर्थात् अन्त सन्निकट होने पर अनशन की प्रेरणा, अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और साधुओं का स्वरूपनिरूपण एवं उनकी वन्दना, नमस्कार-माहात्म्य तथा मंगल चतुष्क, लोकोत्तम चतुष्क, शरणचतुष्क, आलोचना और व्रतोच्चारण का निर्देश है / अन्त में सर्व जीवों की क्षमापणा तथा वेदना सहने और अनशन करने का उपदेश है। आरम्भ में मृत्यु आसत्र होने पर अनशन को उपयुक्त बताया गया है। इसके पश्चात अरहंत की वन्दना के प्रसङ्ग में अरूहंत, अरहंत, नामों का अन्वयार्थ बताते हुए उन्हें प्रथम मंगल कहा गया है, अरहंत का अन्वयार्थ चार प्रकार से किया गया है / सिद्ध के स्वरूप वर्णन प्रसंग में उन्हें सम्पूर्ण कर्मों को जलानेवाला, गन्धरहित, रसरहित, स्पर्शरहित, शब्द रहित, शुक्ल के अतिरिक्त 5 लेश्याओं से रहित, तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल और अमधुर रसों से रहित, जरा-मरण, तृषादि से मुक्त कहा गया है और उनकी वन्दना करते हुए उन्हें सब जीवों का मंगलकारक कहा गया है। आचार्य का स्वरूप और उनकी वन्दना के प्रसंग. में पंच प्रकार के आचार, अष्ट प्रकार के ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार और बारह प्रकार के तपाचार का सम्यक् आचरण तथा वीर्याचार का खण्डन न करने वाला कहा गया है / इन्हें जगत का तृतीय मंगल कहा गया है / 5 उपाध्याय के स्वरूप और वन्दन के क्रम में उन्हें आचारांग आदि 11 अंगों, १२वें अंग के 14 पूर्वो, आवश्यकं, आवश्यक-व्यतिरिक्त उत्कालिकसूत्रों, दशकालिकादि कालिकसूत्रों एवं उत्तराध्ययनादि मूलसूत्रों, औपपातिक आदि उपांगों को शिष्यों को पढ़ाने वाला कहा गया है। आगे यह भी कहा है कि नमोक्कार में चौथे स्थान वाले उपाध्याय सकल जीवों का मंगल करें। साधुवन्दना के प्रसङ्ग में निर्वाण के समस्त साधनों की जो मन, वचन, काय से साधना करते हैं तथा इसी क्रम में पाँच समितियों, तीन गुप्तियों, प्रतिलेखना, प्रमार्जन, भिक्षचर्या, लोच आदि में जो अप्रमत्त हों उनकी वन्दना की गई है / नमोक्कार महिमा, मंगलचतुष्क, लोकोत्तम चतुष्क, शरण चतुष्क, आलोचना और व्रतोच्चारण का निर्देश है। सर्वजीव क्षमापणा के प्रसंग में क्रमश: पृथ्वीकाय से वनस्पतिकाय पर्यन्त, द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय, जलचर, थलचर, नभचर आदि विविध पंचेन्द्रियों, नक्र, मत्स्य, गोह, मकरादि जलचर, द्विपद, चतुष्पद, बहुपद, पदरहित थलचरों, अंडज, रोमज, चर्मज, समुद्गत पक्षी आदि, मनुष्यों, भवनपति, वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक आदि देवों, रत्नादि पृध्वियों के नैरयिक जीवों तथा चारों गतियों में प्राप्त चौरासी लाख योनि के जीवों के प्रति कृत वैर के लिए मिथ्या दुष्कृत और उनसे क्षमापना है। अन्तमें गाथा 64 से वेदना और अनशन करने का उपदेश है / 10 (13) अभयदेवसूरि प्रणीत आराधना प्रकरण' 85 गाथाओं में रचित इस प्रकीर्णक की अन्तिम गाथा में प्राप्त अभयसूरिरइय' से इसके कर्ता अभयदेवसूरि निश्चित होते हैं / इसकी प्रथम गाथा में मरणविधि के छ: द्वारों (1) आलोचना, (2) व्रतोच्चार, (3) क्षामणा, (4) अनशन, (5) शुभभावना और