________________ प्रकीर्णकों की पाण्डुलिपियाँ और प्रकाशित संस्करण : 71 कृत हैं जो लघु हैं परन्तु प्राचीन हैं। अतः पाठभेद की दृष्टि से ग्रन्थ भण्डारों की समस्त प्रतियों का पुनर्लोकन आवश्यक हो गया है / संभवतः और भी भित्र पाठ मिल जायें। इसका अपरनाम अंतकाल प्रत्याख्यान भी है। A-2 - गणिविद्या-इस ग्रन्थ का अध्ययन संघ के आचार्य के लिये अनिवार्य था। इसका दूसरा नाम गणितविद्या भी सार्थक है, क्योंकि मुहूर्त, ज्योतिष व निमित्त इसका विषय है / वस्तुतः दीक्षा, प्रतिष्ठादि धार्मिक कार्यों से ही इसका सम्बन्ध है / A-3 - कुशलानुबंधि-चूंकि चतुशरण इसी नाम वाला एक और प्रकीर्णक है, अतः इसको कुशलानुबंधि चतुःशरण कहते हैं / इसमें 63 गाधाये हैं, यह वीरभद्र की रचना है और उस दूसरे की अपेक्षा यह अर्वाचीन है / इसका प्रगाढ प्रचलन होने से इस पर भरपूर व्याख्या साहित्य भी रचा गया है, अवचूरियाँ तथा टब्बे अनेक हैं। A-4 - चन्द्रवेध्यक-सही नाम चन्द्रावेध्यक है / प्राकृत में सर्वत्र चंदावेज्झयं पाठ ही मिलता है / जिसप्रकार-प्रवीण धनुर्धारी यन्त्र में फिरती पुतली की आंख वींचने में समर्थ है वैसे ही अप्रमत्त साधक दुर्गति को दूर हटा देता है, ऐसा उपमावाचक नाम इस ग्रंथ को / दिया गया है। A-5 - तन्दुलवैचारिक-पाठ तो भित्र नहीं है पर विस्तार भेद अवश्य मिलता है, यह गद्यपद्यमय रचना है - गद्य आलापक भगवती में से भी लिये गये हैं। प्राणिविज्ञान सम्बन्धी कई प्रासंगिक बातों का भी इसमें समावेश है / A-6- देवेन्द्रस्तव-देवलोकों का वर्णन और इन्द्रों द्वारा स्तुत्य इसप्रकार दोनों समास विग्रह परक विषय-वस्तु इस ग्रंथ में है। उत्तरार्द्ध में यही शिक्षा है कि इतनी ऋद्धि वाले देवगण भी सिद्धों की स्तुति करते हैं। A-7 - भक्तपरिज्ञा-यह वीरभद्र की रचना है। इनकी कृति रूप में चार प्रकीर्णक प्रसिद्ध हैं। उनमें से कुशलानुबंधि चतुःशरण, भक्तपरिज्ञा व आराधनापताका में उनके उल्लेख का प्रमाण कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता |* आतुरप्रत्याख्यान का नाम नंदीसूत्र व पाक्षिकसूत्र में मिलता है लेकिन आतुरप्रत्याख्यान, आराधनापताका और चतुःशरण इन नामों के तीनों ग्रंथ वीरभद्र से भी प्रचीन मिलते हैं / वीरभद्र का काल ११वीं शताब्दी सिद्ध हुआ है तो फिर उस जनश्रुति का क्या कि ये भगवान महावीर के शिष्य थे, क्या दो वीरभद्र हुए हैं ? या ११वीं शताब्दी वाले वीरभद्र ने भक्तपरिज्ञा को छोड़कर बाकी उक्त तीन प्राचीन प्रकीर्णकों का विस्तृत संस्करण ही किया ? लेखक के इस मन्तव्य से हम सहमत नहीं हैं, क्योंकि कुशलानुबंधिचतुःशरण (गाथा 63) और भक्तपरिज्ञा (गाथा 172) में ग्रन्थकर्ता के रूप में वीरभद्र के नाम का स्पष्ट उल्लेख है तथा आराधनापताका (गाथा 51) में ग्रन्धकार का यह कहना कि आराधनाविधि का वर्णन हमने पहले भक्तपरिज्ञा में कर दिया है, यही प्रमाणित करता है कि आराधनापताका के रचयिता वीरभद्र ही हैं। -सम्पादक .