Book Title: Prakirnak Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Sagarmal Jain, Suresh Sisodiya
Publisher: Agam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan

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Page 177
________________ गच्छाचार ( प्रकीर्णक) का समीक्षात्मक अध्ययन * डॉ. सुरेश सिसोदिया प्रत्येक धर्म परम्परा में धर्म ग्रन्थ का एक महत्त्वपूर्ण स्थान होता है / हिन्दुओं के लिए वेद, बौद्धों के लिए पिटक, पारसियों के लिए अवेस्ता, ईसाइयों के लिए बाइबिल और मुसलमानों के लिए कुरान का जो स्थान और महत्त्व है, वही स्थान और महत्त्व जैनों के लिए आगम साहित्य का है / जैन आगम साहित्य-अर्द्धमागधी आगम साहित्य और शौरसेनी आगम साहित्य ऐसी दो शाखाओं में विभक्त है। इनमें अर्द्धमागधी आगम साहित्य न केवल प्राचीन है अपितु वह महावीर की मूलवाणी के निकट भी है / शौरसेनी आगम साहित्य का विकास भी अर्द्धमागधी आगम साहित्य के प्राचीन स्तर के इन्हीं आगम ग्रन्थों के आधार पर हुआ है / अतः अर्द्धमागधी आगम साहित्य शौरसेनी आगम साहित्य का आधार एवं उसकी अपेक्षा प्राचीन भी है / __प्राचीन काल में अर्द्धमागधी आगम साहित्य-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ऐसे दो विभागों में विभाजित किया जाता था। अंगप्रविष्ट में ग्यारह अंग आगमों और बारहवें दृष्टिवाद को समाहित किया जाता था / जबकि अंगबाह्य में इनके अतिरिक्त वे सभी आगम ग्रन्थ समाहित किये जाते थे, जो श्रुतकेवली एवं पूर्वधर स्थविरों की रचनाएँ माने जाते थे। ____ नन्दीसूत्र और पाक्षिकसूत्र में मिलने वाले वर्गीकरण में उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान-येसात नामतथाकालिक सूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित औरद्वीपसागरप्रज्ञप्ति-ये दो नाम, अर्थात् वहाँ कुल नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है। किन्तु वहाँ गच्छायारपइण्णयं (गच्छाचार-प्रकीर्णक) का कहीं भी उल्लेख नहीं है / तत्त्वार्थभाष्य और दिगम्बर परम्परा की तत्त्वार्थ की टीका सर्वार्थसिद्धि में जहाँ अंगबाह्य चौदह ग्रन्थों का उल्लेख है, उनमें भी गच्छाचार का उल्लेख नहीं हुआ है / इसी प्रकार यापनीय परम्परा के ग्रन्थों मूलाचार, भगवती आराधना आदि में यद्यपि उत्तराध्ययनसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, दशाश्रुतस्कन्ध व्यवहार, वृहत्कल्प, जीतकल्प और निशीथसूत्र आदि ग्रन्थों के उल्लेख तो मिलते हैं, किन्तु उनमें भी कहीं भी गच्छाचार प्रकीर्णक का उल्लेख नहीं मिलता है। ___ गच्छाचार प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख हमें विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ, १४वीं शताब्दी) में उपलब्ध होता है। उसमें प्रकीर्णकों में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, मरणसमाधि, महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, संस्तारक, चन्द्रवेध्यक, भक्तपरिज्ञा, चतुःशरण, वीरस्तव, गणिविद्या, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, संग्रहणी और सबसे अन्त में गच्छाचार का उल्लेख हुआ है। विधिमार्गप्रपा में आगम ग्रन्थों के अध्ययन की जो विधि प्रज्ञप्त की गई है उसमें गच्छाचार के पश्चात महानिशीथ के अध्ययन का उल्लेख है। विधिमार्गप्रपा में गच्छाचार

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